गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दस बरस का छत्तीसगढ़

स्थापना दिवस( 1 नवंबर) के प्रसंग पर एक विहंगावलोकनः
छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र दस वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।
समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।
अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।
शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ ‘विक्रम विलास’ में लिखा हैः
जिनमें दक्षिण कौशल देसा,
जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,
तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,
पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।

राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता। नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है। देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सल के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। दसवें साल पर छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. banut sundar sargarbhit aalekh likha hai bhaiya, pradesh ke sabhi pahluo ka vihangavalokan hai is aalekh me.

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  2. ... संपूर्ण छत्तीसगढ की एक संक्षिप्त लेख में पिरोकर अभिव्यक्ति ... बेहद प्रभावशाली है, आभार!

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  3. एक सजग पत्रकार की दृष्टि-समग्रता.

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  4. बहुत शानदार आलेख. छत्तीगढ़ महतारी की वंदना सा करता हुआ.

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  5. बीते दस बरस को शायद इतने कम शब्दों में इस से बेहतर नहीं समेटा जा सकता सर जितना आपने बड़ी कुशलता से समेटा है.

    इस बात से पूरे तौर पर सहमत हूँ की " छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। दसवें साल पर छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है। "

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