मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

जिस इंद्रेश कुमार को मैं जानता हूं !!


क्या उन्हें अपने अच्छे कामों की सजा मिल रही है
- संजय द्विवेदी
कुछ साल पहले की ही तो बात है इंद्रेश कुमार से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मेरी मुलाकात हुयी थी। आरएसएस के उन दिनों वे राष्ट्रीय पदाधिकारी थे। एक अखबार का स्थानीय संपादक होने के नाते मैं उनका इंटरव्यू करने पहुंचा था। अपने बेहद निष्पाप चेहरे और सुंदर व्यक्तित्व से उन्होंने मुझे प्रभावित किया। बाद में मुझे पता चला कि वे मुसलमानों को आरएसएस से जोड़ने के काम में लगे हैं। रायपुर में भी उनके तमाम चाहने वाले अल्पसंख्यक वर्ग में भी मौजूद हैं। उनसे थोड़े ही समय के बाद आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में रायपुर में फिर मुलाकात हुयी। वे मुझे पहचान गए। उनकी स्मरण शक्ति पर थोड़ा आश्चर्य भी हुआ कि वे सालों पहले हुयी मुलाकातों और मेरे जैसे साधारण आदमी को भी याद रखते हैं। उसी इंद्रेश कुमार का नाम अजमेर बम धमाकों में पढ़कर मुझे अजीब सा लग रहा है। मुझे याद है कि इंद्रेश जी जैसे लोग ऐसा नहीं कर सकते। किंतु देश की राजनीति को ऐसा लगता है और वे शायद इसके ही शिकार बने हैं।
मेरे मन में यह सवाल आज भी कौंध रहा है कि क्या यह आदमी सचमुच बहुत खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह प्रचारक हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करता है। वह मुसलमानों को राष्ट्रवाद की राह पर डालकर सदियों से उलझे रिश्तों को ठीक करने की बात कर रहा है। ऐसे आदमी को भला हिंदुस्तान की राजनीति कैसे बर्दाश्त कर सकती है। क्योंकि आज नहीं अगर दस साल बाद भी इंद्रेश कुमार अपने इरादों में सफल हो जाता है तो भारतीय राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं की दुकान बंद हो जाएगी। इसलिए इस आदमी के कदम रोकना जरूरी है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एक ऐसा आदमी जो सदियों से जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिशें कर रहा है, उसे ही अजमेर के बम विस्फोट कांड का आरोपी बना दिया जाए।
अब उस इंद्रेश कुमार की भी सोचिए जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन में काम करते रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज का संगठन है। ऐसे संगठन में रहते हुए मुस्लिम समाज से संवाद बनाने की कोशिश क्या उनके अपने संगठन (आरएसएस) में भी तुरंत स्वीकार्य हो गयी होंगी। जाहिर तौर पर इंद्रेश कुमार की लड़ाई अपनों से भी रही होगी और बाहर खड़े राजनीतिक षडयंत्रकारियों से भी है। वे अपनों के बीच भी अपनी सफाई देते रहे हैं कि वे आखिर मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं , जबकि संघ का मूल काम हिंदू समाज का संगठन है। इंद्रेश कुमार की कोशिशें रंग लाने लगी थीं, यही सफलता शायद उनकी शत्रु बन गयी है। क्योंकि वे एक ऐसे काम को अंजाम देने जा रहे थे जिसकी जड़ें हिंदुस्तान के इतिहास में इतनी भयावह और रक्तरंजित हैं कि सदभाव की बात करनेवालों को उसकी सजा मिलती ही है। मुसलमानों के बीच कायम भयग्रंथि और कुठांओं को निकालकर उन्हें 1947 के बंटवारे को जख्मों से अलग करना भी आसान काम नहीं है। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, मौलाना आजाद जैसे महानायकों की मौजूदगी के बावजूद हम देश का बंटवारा नहीं रोक पाए। उस आग में आज भी कश्मीर जैसे इलाके सुलग रहे हैं। तमाम हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम रिश्ते अविश्वास की आग में जल रहे हैं। ऐसे कठिन समय में इंद्रेश कुमार क्या इतिहास की धारा की मोड़ देना चाहते हैं और उन्हें यह तब क्यों लगना चाहिए कि यह काम इतना आसान है। यह सिर्फ संयोग ही है कि कुछ दिन पहले राहुल गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सिमी के साथ खड़ा करते हैं। एक देशभक्त संगठन और आतंकियों की जमात में उन्हें अंतर नहीं आता। नासमझ राजनीति कैसे देश को तोड़ने और भय का व्यापार करती है, ताजा मामले इसका उदाहरण हैं। इससे यह साफ संकेत जाते हैं कि इसके पीछे केंद्र और राजस्थान सरकार के इरादे क्या हैं ? देश को पता है कि इंद्रेश कुमार, आरएसएस के ऐसे नेता हैं जो मुसलमानों और हिंदू समाज के बीच संवाद के सेतु बने हैं। वे लगातार मुसलमानों के बीच काम करते हुए देश की एकता को मजबूत करने का काम कर रहे हैं। ऐसा व्यक्ति कैसे कांग्रेस की देशतोड़क राजनीति को बर्दाश्त हो सकता है। साजिश के तार यहीं हैं। क्योंकि इंद्रेश कुमार ऐसा काम कर रहे थे कि अगर उसके सही परिणाम आने शुरू हो जाते तो सेकुलर राजनीति के दिन इस देश से लद जाते। हिदू- मुस्लिम एकता का यह राष्ट्रवादी दूत इसीलिए सरकार की नजरों में एक संदिग्ध है।
राजस्थान पुलिस खुद कह रही है अभी इंद्रेश कुमार को अभियुक्त नहीं बनाया गया है। यह समय बताएगा कि छानबीन से पुलिस को क्या हासिल होता है। फिर पूरी जांच किए बिना इतनी जल्दी क्या थी।क्या बिहार के चुनाव जहां कांग्रेस मुसलमानों को एक संकेत देना चाहती थी, जिसकी शुरूआत राहुल गांधी आऱएसएस पर हमला करके पहले ही कर चुके थे। संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल पुलिस का इस्तेमाल करते रहे हैं किंतु राजनीतिक दल इस स्तर पर गिरकर एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व पर कलंक लगाने का काम करेंगें, यह देखना भी शर्मनाक है। इससे इतना तो साफ है कि कुछ ताकतें देश में ऐसी जरूर हैं जो हिंदू-मुस्लिम एकता की दुश्मन हैं। उनकी राजनीतिक रोटियां सिंकनी बंद न हों इसलिए दो समुदायों को लड़ाते रहने में ही इनकी मुक्ति है। शायद इसीलिए इंद्रेश कुमार निशाने पर हैं क्योंकि वे जो काम कर रहे हैं वह इस देश की विभाजनकारी और वोटबैंक की राजनीति के अनूकूल नहीं हैं। अगर इस मामले से इंद्रेश कुमार बच निकलते हैं तो आखिर राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार का क्या जवाब होगा। किंतु जिस तरह से हड़बड़ी दिखाते हुए इंद्रेश कुमार को आरोपित किया गया उससे एक गहरी साजिश की बू आती है। क्योंकि उनकी छवि मलिन करने का सीधा लाभ उन दलों को मिलना है जो मुसलमानों के वोट के सौदागर हैं। आतंकवाद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई का देश स्वागत करता है किंतु आतंकवाद की आड़ में देशभक्त संगठनों और उनके नेताओं को फंसाने की किसी भी साजिश को देश महसूस करता है और समझता है। किसी भी राजनीतिक दल को ऐसी घटिया राजनीति से बाज आना चाहिए। किसी भी समाज के धर्मस्थल पर विस्फोट एक ऐसी घटना है जिसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। किंतु क्या एक डायरी में फोन नंबरों का मिल जाना एक ऐसा सबूत है जिसके आधार किसी भी सम्मानित व्यक्ति को आरोपित किया जा सकता है। हमें यह समझने की जरूरत है कि आखिर वे कौन से लोग हैं जो हिंदू-मुस्लिम समाज की दोस्ती में बाधक हैं। वे कौन से लोग हैं जिन्हें भय के व्यापार में आनंद आता है। अगर आज इंद्रेश कुमार जैसे लोगों का रास्ता रोका गया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों में मुस्लिम मुद्दों पर संवाद बंद हो जाएगा। हिंदुस्तान के 20 करोड़ मुसलमानों को देश की मुख्यधारा में लाने की यह कोशिश अगर विफल होती है तो शायद फिर कोई इंद्रेश कुमार हमें ढूंढना मुश्किल होगा। इंद्रेश कुमार जैसे लोगों के इरादे पर शक करके हम वही काम कर रहे हैं जो मुहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग ने किया था जिन्होंनें महात्मा गांधी को एक हिंदू धार्मिक संत और कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर लांछित किया था। जो काम 1947 में मुस्लिम लीग ने किया, वही काम आज कांग्रेस की सरकारें कर रही हैं। राष्ट्र जीवन में ऐसे प्रसंगों की बहुत अहमियत नहीं है किंतु इंद्रेश कुमार की सफलता को उनके अपने लोग भी संदेह की नजर से देखते थे। वे सरकारें जो आतंकी ताकतों से समझौते के लिए उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं, जो कश्मीर के गिलानी, मणिपुर के मुइया और अरूघंती राय जैसों के आगे बेबस हैं, वे इंद्रेश कुमार को लेकर इतनी उत्साहित क्यों हैं?
बावजूद इसके कि इंद्रेश कुमार एक गहरे संकट में हैं, पर इस संकट से वे बेदाग निकलेगें इसमें शक नहीं। उन पर उठते सवालों और संदेहों के बीच भी इस देश को यह कहने का साहस पालना ही होगा कि हमें एक नहीं हजारों इंद्रेश कुमार चाहिए जो एक हिंदू संगठन में काम करते हुए भी मुस्लिम समाज के बारे में सकारात्मक सोच रखते हों। आज इस षडयंत्र में क्या हम इंद्रेश कुमार का साथ छोड़ दें ? इस देश में तमाम लोग हत्यारे व हिंसक माओवादियों और कश्मीर के आतंकवादियों के समर्थन में लेखमालाएं लिख रहे हैं, व्याख्यान दे रहे हैं। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है। क्या इंद्रेश कुमार जिनसे मैं मिला हूं, जिन्हें मैं जानता हूं, उन्हें इस समय मैं अकेला छोड़ दूं और यह कहूं कि कानून अपना काम करेगा। कानून काम कैसे करता है, यह जानते हुए भी। जिस कानून के हाथ अफजल गुरू को फांसी देने में कांप रहे हैं, वह कानून कितनी आसानी से हिंदू-मुस्लिम एकता के इस प्रतीक को अपनी फन से डस लेता है, उस कानून की फुर्ती और त्वरा देखकर मैं आश्चर्यचकित हूं। मैं भारत के एक आम नागरिक के नाते, हिंदू-मुस्लिम एकता के सूत्रधार इंद्रेश कुमार के साथ खड़ा हूं। आपको भी इस वक्त उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

कुछ भी कहने की आजादी बनाम हिंदुस्तान का जनतंत्र



देश तोड़क ताकतों के खिलाफ कड़ा रूख अपनाए सरकार

-संजय द्विवेदी
भारतीय जनतंत्र ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या वास्तव में लोगों को खुला छोड़ दिया है। एक बहुलतावादी,बहुधार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज ने अपनी सहनशीलता से एक ऐसा वातावरण सृजित किया है जहां आप कुछ कहकर आजाद धूम सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार का दुरूपयोग भारत में जितना और जिसतरह हो रहा है उसकी मिसाल न मिलेगी। बावजूद इसके ये ताकतें भारत के लोकतंत्र को, हमारी व्यवस्था को लांछित करने से बाज नहीं आती। क्या मामला है कि नक्सलियों के समर्थक और कश्मीर की आजादी के समर्थक एक मंच पर नजर आते हैं। क्या ये देशद्रोह नहीं है। क्या भारत की सरकार इतनी आतंकित है कि वह इन देशद्रोही विचारों के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकती। आखिर ये देश कैसे बचेगा। एक तरफ देश के नौ राज्यों में बंदूकें उठाए हुए वह हिंसक माओवादी विचार है जो 2050 में भारत की राजसत्ता की कब्जा करने का घिनौना सपना देख रहा है। दूसरी ओर वे लोग हैं जो कश्मीर की आजादी का स्वप्न दिखाकर घाटी के नौजवानों में भारत के खिलाफ जहर भर रहे हैं। किंतु देश की एकता अखंडता के खिलाफ चल रहे ये ही आंदोलन नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर सीमावर्ती राज्यों में अलग-अलग नामों, समूहों के रूप में अलगाववादी ताकतें सक्रिय हैं जिन्होंने विदेशी पैसे के आधार पर भारत को तोड़ने का संकल्प ले रखा है। अद्भुत यह कि इन सारे संगठनों की अलग-अलग मांगें है किंतु अंततः वे एक मंच पर हैं। यह भी बहुत बेहतर हुआ कि हुर्रियत के कट्टपंथी नेता अली शाह गिलानी और अरूंधती राय दिल्ली में एक मंच पर दिखे। इससे यह प्रमाणित हो गया कि देश को तोड़ने वाली ताकतों की आपसी समझ और संपर्क बहुत गहरे हैं।

किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। दुनिया का कौन सा देश होगा जहां उसके देश के खिलाफ ऐसी बकवास करने की आजादी होगी। भारत ही है जहां आप भारत मां को डायन और राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने के बाद भी भारतीय राजनीति में झंडे गाड़ सकते हैं। राजनीति में आज लोकप्रिय हुए तमाम चेहरे अपने गंदे और धटिया बयानों के आधार पर ही आगे बढ़े हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा दुरूपयोग निश्चय ही दुखद है। गिलानी लगातार भारत विरोधी बयान दे रहे हैं किंतु उनके खिलाफ हमारी सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है। वे देश की राजधानी में आकर भारत विरोधी बयान दें और जहर बोने का काम करें किंतु हमारी सरकारें खामोश हैं। गिलानी का कहना है कि “ घाटी ही नहीं जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। राज्य के मुसलमानों ही नहीं हिंदुओं और सिखों को भी आत्मनिर्णय का हक चाहिए।”ऐसे कुतर्क देने वाले गिलानी बताएंगें कि वे तब कहां थे जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितो को घाटी छोड़कर हिंदुस्तान के तमाम शहरों में अपना आशियाना बनाना पड़ा। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, महिलाओं को अपमानित किया गया। जिन पत्थर बाजों को वे आजादी का योद्धा बता रहे हैं वे ही जब श्रीनगर में सिखों के घरों पर पत्थर फेंककर उन्हें गालियां दे रहे थे, तो वे कहां थे। इन पत्थरबाजों और आतंकियों ने वहां के सिखों को घमकी दी कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या घाटी छोड़ दें। तब गिलानी की नैतिकता कहां थी। आतंक और भय के व्यापारी ये पाकपरस्त नेता भारत ही नहीं घाटी के नौजवानों के भी दुश्मन हैं जिन्होंने घरती के स्वर्ग कही जाने धरती को नरक बना दिया है। दिल्ली में गिलानी पर जूते फेंकने की घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता किंतु एक आक्रोशित हिंदुस्तानी के पास विकल्प क्या है। जब वह देखता है उसकी सरकार संसद पर हमले के अपराधी को फांसी नहीं दे सकती, लाखों हिंदूओं को घाटी छोड़नी पड़े और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएं, पाकपरस्तों की तूती बोल रही हो, देश को तोड़ने के सारे षडयंत्रकारी एक होकर खड़ें हों तो विकल्प क्या हैं। एक आम हिंदुस्तानी मणिपुर के मुईया, दिल्ली के बौद्धिक चेहरे अरूंधती, घाटी के गिलानी, बंगाल के छत्रधर महतो के खिलाफ क्या कर सकता है। हमारी सरकारें न जाने किस कारण से भारत विरोधी ताकतों को पालपोस कर बड़ा कर रही हैं। जिनको फांसी होनी चाहिए वे जेलों में बिरयानी खा रहे हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए वे दिल्ली की आभिजात्य बैठकों में देश को तोडने के लिए भाषण कर रहे हैं। एक आम हिंदुस्तानी इन ताकतवरों का मुकाबला कैसे करे। जो अपना घर वतन छोड़कर दिल्ली में शरणार्थी हैं,वे अपनी बात कैसे कहें। उनसे मुकाबला कैसे करें जिन्हें पाकिस्तान की सरकार पाल रही है और हिंदुस्तान की सरकार उनकी मिजाजपुर्सी में लगी है। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।

शुक्र है कि दारूल -उलूम देवबंद ने जमात उलेमा-ए हिंद के तत्वावधान में एक सम्मेलन कर कश्मीर को भारत का अविभाज्य और अभिन्न अंग बताया है। जाहिर है जब कश्मीर का संकट एक विकराल रूप धारण कर चुका है, ऐसे समय में देवबंद की राय का स्वागत ही किया जाना चाहिए। इससे पता चलता है कि देश में आज भी उसके लिए सोचने और करने वालों कमी नहीं है। दारूल उलूम देवबंद ने यह खास सम्मेलन कश्मीर समस्या पर ही आयोजित किया था। इसमें बड़ी संख्या में उलेमाओं ने हिस्सा लिया था। इस सम्मेलन में वक्ताओं ने दो टूक कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। वक्ताओं ने इस सम्मेलन में आतंकवादियों की तीव्र भर्त्सना करते हुए वहां फैलाई जा रही हिंसा को गलत बताया। वक्ताओं का कहना था कि भारत एक फूलों का गुलदस्ता है। हम इस बात को गवारा नहीं कर सकते कि उससे किसी फूल को अलग किया जाए। जमात उलेमा –ए –हिंद के नेता महमूद मदनी ने यह भी कहा कि कश्मीर में अलगाववादियों के कारनामों का शेष भारत के मुसलमानों पर गंभीर परिणाम होगा। दारूल उल उलूम की इस पहल का निश्चय ही स्वागत किया जाना चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है पहली बार यह महत्वपूर्ण संस्था इस विषय पर खुलकर सामने आयी है। कश्मीर का संकट आज जिस रूप में हमारे सामने हैं उसमें प्रत्येक देशभक्त संगठन का कर्तव्य है कि वह आगे आकर इन मुद्दों पर संवाद करे तथा सही रास्ता सुझाए। देश के सामने खड़े संकटों में देश के संगठनों का दायित्व है कि वे सही फैसले लें और अमन का रास्ता कौम को बताएं। क्योंकि ऐसे अंधेरों में ही समाज को सही मार्गदर्शन की जरूरत होती है। ऐसे समय में दारूल-उलूम की बतायी राह एक मार्गदर्शन की तरह ही है। जो लोग भारत से कश्मीर को अलग करने का ख्याब देख रहे हैं उन्हें इससे बाज आना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का फायदा उठाकर जो तत्व देशतोड़क विचारों के प्रचारक बने हैं,उनपर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। भारतीय राज्य की अतिशय सदाशयता देश पर भारी पड़ रही है, हमें अपना रवैया बदलने और कड़े संकेत देने की जरूरत है। देश को यह बताने की जरूरत है गिलानी और अरूधंती जैसे लोग किससे बल पर देश में यह वातावरण बना रहे हैं। उनके पीछे कौन सी ताकते हैं। सरकार को तथ्यों के साथ इनकी असलियत सामने लानी चाहिए।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

विजयादशमी की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। यह पर्व आपको सच के साथ जीने का साहस दे।-संजय द्विवेदी

कैसे आएंगें राम इस रक्तरंजित बस्तर में !


जिस धरा पर पड़े प्रभु के चरण वहां बिछी हैं लैंड माइंस
-संजय द्विवेदी
बस्तर यानि दण्डकारण्य का वह क्षेत्र जहां भगवान राम ने अपने वनवास काल में प्रवास किया। बस्तर की यह जमीन आज खून से नहाई हुयी है। बस्तर एक युद्धभूमि में बदल गया है। जहां वे वनवासी मारे जा रहे हैं जिनकी मुक्ति की जंग कभी राम ने लड़ी थी और आज उस जंग को लड़ने का कथित दावा नक्सली संगठन भी कर रहे हैं। दशहरे का बस्तर में एक खास महत्व है। बस्तर का दशहरा विश्वप्रसिद्ध है। लगभग 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे में बस्तर की आदिवासी संस्कृति के प्रभाव पूरे ताप पर दिखती है। बस्तर की लोकसंस्कृति का शायद यह अपने आप में सबसे बड़ा जमावड़ा है। बस्तर राजपरिवार के नेतृत्व में जुटने वाला जनसमुद्र इसकी लोकप्रियता का गवाह है। लोकसंस्कृति किस तरह स्थानीयता के साथ एकाकार होती है इसका उदाहरण यह है कि दशहरे में यहां रावण नहीं जलाया जाता, पूजा भी नहीं जाता। क्या इस दशहरे में राम बस्तर आने का मन बना पाएंगें। जिन रास्तों से वे गुजरे होंगें वहां आज बारूदी सुरंगे बिछी हुयी हैं। आतंक और अज्ञात भय इन तमाम इलाकों में घेरते हैं। रावण की हिंसात्मक राजनीति का दमन करते हुए राम ने आतंक से मुक्ति का संदेश दिया था। किंतु आज के हालात में बस्तर अपने भागीरथ का इंतजार कर रहा है जो उसे आतंक के शाप से मुक्त करा सके। बस्तर के दशहरे में मुड़िया दरबार सजता है जो पंचायत सरीखी संस्था है, जहां पर आदिवासी जन बस्तर के राजपरिवार के साथ बैठकर अपनी चिंताओं पर बात करते हैं। इस दरबार में आदिवासी समाज को बस्तर में फैली हिंसा पर भी बात करनी चाहिए। ताकि बस्तर आतंक के शाप से मुक्त हो सके। आदिवासी जीवन फिर से अपनी सहज हंसी के साथ जी सके और बारूद व मांस के लोथड़ों की गंध से बस्तर मुक्त हो सके।
नक्सली जिस तरह भारतीय राजसत्ता को आए दिन चुनौती दे रहे हैं और उससे निपटने के लिए हमारे पास कोई समाधान नहीं दिखता । सरकार के एक कदम आगे आकर फिर एक कदम पीछे लौट जाने के तरीके ने हमारे सामने भ्रम को गहरा किया है। जाहिर तौर पर हमारी विवश राजनीति,कायर रणनीति और अक्षम प्रशासन पर यह सवाल सबसे भारी है। नक्सली हों या देश की सीमापार बैठे आतंकवादी वे जब चाहें, जहां चाहें कोई भी कारनामा अंजाम दे सकते हैं और हमारी सरकारें लकीर पीटने के अलावा कर क्या सकती हैं। राजनीति की ऐसी बेचारगी और बेबसी लोकतंत्र के उन विरोधियों के सामने क्यों है। क्या कारण है कि हिंसा में भरोसा रखनेवाले, हमारे लोकतंत्र को न माननेवाले, संविधान को न माननेवाले भी इस देश में कुछ बुद्धिवादियों की सहानुभूति पा जाते हैं। सरकारें भी इनके दबाव में आ जाती हैं। नक्सली चाहते क्या हैं। नक्सलियों की मांग क्या है। वे किससे यह यह मांग कर रहे हैं। वे बातचीत के माध्यम से समस्या का हल क्यों नहीं चाहते। सही तो यह है कि वे इस देश में लोकतंत्र का खात्मा चाहते हैं। वे जनयुद्ध लड़ रहे हैं और जनता का खून बहा रहे हैं।हमारी सरकारें भ्रमित हैं। लोग नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर प्रमुदित हो रहे हैं। राज्य का आतंक चर्चा का केंद्रीय विषय है जैसे नक्सली तो आतंक नहीं फैला रहे बल्कि जंगलों में वे प्रेम बांट रहे हैं। उनका आतंक, आतंक नहीं है। राज्य की हिंसा का प्रतिकार है। किसने उन्हें यह ठेका दिया कि वे शांतिपूर्वक जी रही आदिवासी जनता के जीवन में जहर धोलें। उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा दें, जो हमारे राज्य की ओर ही तनी हुयी हों। लोगों की जिंदगी बदलने के लिए आए ये अपराधी क्यों इन इलाकों में स्कूल नहीं बनने देना चाहते, क्यों वे चाहते हैं कि सरकार यहां सड़क न बनाए, क्यों वे चाहते हैं कि सरकार नाम की चीज के इन इलाकों में दर्शन न हों। पुल, पुलिया, सड़क, स्कूल, अस्पताल सबसे उन्हें परेशानी है। जनता को दुखी बनाए रखना और अंधेरे बांटना ही उनकी नीयत है। क्या हम सब इस तथ्य से अपरिचित हैं। सच्चाई यह है कि हम सब इसे जानते हैं और नक्सलवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई फिर भी भोथरी साबित हो रही है। हमें कहीं न कहीं यह भ्रम है कि नक्सल कोई वाद भी है। आतंक का कोई वाद हो सकता है यह मानना भी गलत है। अगर आपका रास्ता गलत है तो आपके उद्देश्य कितने भी पवित्र बताए जाएं उनका कोई मतलब नहीं है। हमारे लोकतंत्र ने जैसा भी भारत बनाया है वह आम जनता के सपनों का भारत है। माओ का कथित राज बुराइयों से मुक्त होगा कैसे माना जा सकता है। आज लोकतंत्र का ही यह सौंदर्य है कि नक्सलियों का समर्थन करते हुए भी इस देश में आप धरना-प्रदर्शन करते और गीत- कविताएं सुनाते हुए घूम सकते हैं। अखबारों में लेख लिख सकते हैं। क्या आपके माओ राज में अभिव्यक्ति की यह आजादी बचेगी। निश्चय ही नहीं। एक अधिनायकवादी शासन में कैसे विचारों, भावनाओं और अभिव्यक्तियों का गला घुटता है इसे कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे माओवादी हमारे लोकतंत्र को चुनौती देते घूम रहे हैं और हम उन्हें सहते रहने को मजबूर हैं।
नक्सलवादियों के प्रति हमें क्या तरीका अपनाना चाहिए ये सभी को पता है फिर इस पर विमर्श के मायने क्या हैं। खून बहानेवालों से शांति की अर्चना सिर्फ बेवकूफी ही कही जाएगी। हम क्या इतने नकारा हो गए हैं कि इन अतिवादियों से अभ्यर्थना करते रहें। वे हमारे लोकतंत्र को बेमानी बताएं और हम उन्हें सिर-माथे बिठाएं, यह कैसी संगति है। आपरेशन ग्रीन हंट को पूरी गंभीरता से चलाना और नक्सलवाद का खात्मा हमारी सरकार का प्राथमिक ध्येय होना चाहिए। जब युद्ध होता है तो कुछ निरअपराध लोग भी मारे जाते हैं। यह एक ऐसी जंग है जो हमें अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए जीतनी ही पड़ेगी। बीस राज्यों तक फैले नक्सली आतंकवादियों से समझ की उम्मीदें बेमानी हैं। वे हमारे लोकतंत्र की विफलता का फल हैं। राज्य की विफलता ने उन्हें पालपोस का बड़ा किया है। सबसे ऊपर है हमारा संविधान और लोकतंत्र जो भी ताकत इनपर भरोसा नहीं रखती उसका एक ही इलाज है उन प्रवृत्तियों का शमन।
भगवान राम आज इस बस्तर की सड़कों और इस शांत इलाके में पसरी अशांति पर क्या करते। शायद वही जो उन्होंने लंका के राजा रावण के खिलाफ किया। रावण राज की तरह नक्सलवाद भी आज हमारी मानवता के सामने एक हिंसक शक्ति के रूप में खड़ा है। हिंसा के खिलाफ लड़ना और अपने लोगों को उससे मुक्त कराना किसी भी राज्य का धर्म है। नक्सलवाद के रावण के खिलाफ हमारे राज्य को अपनी शक्ति दिखानी होगी। क्योंकि नक्सलवाद के रावण ने हमारे अपने लोगों की जिंदगी में जहर घोल रखा है। उनके शांत जीवन को झिंझोड़कर रख दिया है। बस्तर के लोग फिर एक राम का इंतजार कर रहे हैं। पर क्या वे आएंगें। क्या एक बार फिर जनता को आसुरी शक्तियों से मुक्त कराने का काम करेंगें। जाहिर तौर पर ये कल्पनाएं भर नहीं हैं, हमारे राज्य को अपनी शक्ति को समझना होगा। नक्सली हिंसा के रावण के खिलाफ एक संकल्प लेना होगा। हमारा देश एक नई ताकत के साथ महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। ये हिंसक आंदोलन उस तेज से बढ़ते देश के मार्ग में बाधक हैं। हमें तैयार होकर इनका सामना करना है और इसे जल्दी करना है- यह संकल्प हमारी सरकार को लेना होगा। भारत की महान जनता अपने संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हुए देश के विकास में जुटी है। हिंसक रावणी और आसुरी आतंकी प्रसंग उसकी गति को धीमा कर रहे हैं। हमें लोगों को सुख चैन से जीने से आजादी और वातावरण देना होगा। अपने जवानों और आम आदिवासियों की मौत पर सिर्फ स्यापा करने के बजाए हमें कड़े फैसले लेने होंगें और यह संदेश देना होगा कि भारतीय राज्य अपने नागरिकों की जान-माल की रक्षा करने में समर्थ है। बस्तर से आतंक की मुक्ति में आम जनता,आदिवासी समाज और सरकार को राम की सेना के रूप में एकजुट होना होगा। तभी लोकतंत्र की जीत होगी और रावणी व आसुरी नक्सलवाद को पराजित किया जा सकेगा। दशहरे पर नक्सलवाद के रावण के शमन का संकल्प लेकर हम अपने लोकतंत्र की बुनियाद को ही मजबूत करेंगें।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

कश्मीरः रेकार्ड पर ठहरी सूइयां


केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों से बहुत उम्मीदें न रखिए

-संजय द्विवेदी

कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘सिकारों’ पर फिर हंसी-खुशी गायब है और जिंदगी अचानक बहुत खामोश हो गयी है। हवा में बारुद की गंध है और फिजां में तैरने वाली खुशबू गायब है।कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती। यूं लगता है कि कश्मीर में हमारी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके। ऐसे घने अंधेरे में भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में बातचीत के लिए तीन वार्ताकारों का एक पैनल बनाया है। जिसमें एक पत्रकार, एक प्रोफेसर और एक सूचना आयुक्त हैं।

जाहिर तौर पर सूची में शामिल नामों से भी, बिगड़े हालात के मद्देनजर भी और इस पैनल के धोषित होते ही आयी प्रतिक्रियाओं से लगता है कि हमें इससे बहुत उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। बताया जाता है कि इस पैनल के लिए एक और सदस्य की तलाश जारी है। साथ ही खबर यह भी कि कोई महत्वपूर्ण कांग्रेस नेता इसका हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं है। जबकि कहा यह जा रहा है कि अगर इसमें राजनीतिक व्यक्तित्व न होंगें तो तो उसे गंभीरता नहीं लिया जाएगा। अब फौरी तौर पर कश्मीर के अतिवादी संगठनों ने इसे बेकार की कवायद करार दे दिया है। अलगाववादी नेता गिलानी का कहना है कि भारत सरकार गूंगे-बहरों की तरह की व्यवहार कर रही है। हालांकि सरकार अपने इस कदम से बहुत आशान्वित है कि वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, जामिया मिलिया की प्रोफेसर राधा कुमार और सूचना आयुक्त एमएम अंसारी की टीम सभी तरह के राजनीतिक विचारों वाले लोगों से विचार विमर्श कर एक ऐसा रास्ता सुझाएंगें जो जो सही मायनों में जम्मू-कश्मीर और खासकर वहां के नौजवानों की उम्मीदों के अनुकूल हो। कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व की बेबसी और सीमाएं हमारे सामने हैं ही। जाहिर तौर पर मामला इतना सीधा नहीं है।

आजादी का नारा वहां के आवाम की जुबान पर यूं चढ़ाया जा रहा है, जैसे उसके बिना बात नहीं बनेगी। कुल मिलाकर यह युद्ध बहुत भावनात्मक हो चुका है। गिलानी जैसे नेताओं के स्टैंड से साफ दिखता है कि उन्हें आजादी चाहिए क्योंकि वे हिंदू बहुल भारत से मुक्ति चाहते हैं। अली शाह गिलानी की सुनिए तो बात साफ हो जाएगी। वे साफ कहते हैं कि- “ हमारा यह आंदोलन द्विराष्ट्रवाद के आधार पर हुए देश के विभाजन का हिस्सा है। मुस्लिम कश्मीर घाटी हिंदू भारत से अलग होना चाहती है। वह उसका हिस्सा नहीं है। भारत ने सेना के द्वारा हमारे क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है। भारतीय सेना की उपस्थिति को हम एक कब्जाऊ विदेशी सेना के रूप में देखते हैं। ” गिलानी अपनी इस बात को अनगिनत बार और कई टीवी चैनलों पर कहते रहे हैं। ऐसे में विकास और प्रगति के सवाल यहां अलहदा हो जाते हैं। ऐसे अतिवादी विचारों से जंग हो तो विकल्प जाहिर तौर पर बहुत सीमित हो जाते हैं। सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का भी गिलानी ने बहिष्कार किया। फिर भी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी के नेतृत्व में कुछ सदस्य उनसे मिलने पहुंचे। उस बातचीत का सीधा प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ जिसमें साफ तौर गिलानी ने कहा कि उनकी लड़ाई आर्थिक विकास और राजनीतिक सुविधाओं के लिए नहीं है। वे मुस्लिम घाटी की हिंदू भारत से मुकम्मल आजादी चाहते हैं। गिलानी आज की तारीख में कश्मीर के सबसे प्रभावशाली नेता हैं। उनके हुक्म पर पत्थरबाज सड़कों पर उतर आते हैं। बाजार बंद हो जाते हैं। वे कहते हैं तो पत्थर बाजी रूक जाती है। वे सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के बहिष्कार की बात करते हैं तो श्रीनगर की सड़कें सूनी हो जाती हैं। स्कूल खाली हो जाते हैं। जाहिर तौर पर हमारे राजनीतिक दलों और राजनीतिक नेताओं की विफलता से ये अतिवादी ताकतें आज प्रभावी भूमिका में हैं। पाकिस्तान का संरक्षण इन्हें ताकत दे रहा है। अब हालात यह हैं कि कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी अतिवादियों की भाषा बोलनी पड़ रही है। जिसे लेकर विधानसभा में हंगामा भी हुआ। कुल मिलाकर जैसे हालात हैं उसमें कश्मीर एक ऐसी आग में जल रहा है जहां तर्क, संवाद और बातचीत के मायने खत्म से लगते हैं। सेना और पुलिस की बबर्रता वहां के बड़े सवाल हैं, किंतु आतंकी हिंसा और अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिखों, बौद्धों) के साथ हुयी हिंसा वहां के संवाद से गायब है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर गिलानी के लिए कश्मीर में दीवानगी क्यों है। आखिर क्या कारण है राजनीतिक नेतृत्व के बजाए अलगाववादी नेतृत्व वहां के लोगों को ज्यादा भाता है। कहीं उसके पीछे वही अतिवादी धार्मिक भाव आज भी काम नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते एक निष्ठावान मुसलमान मौलाना अबुल कलाम आजाद की जगह मजहब से दूर रहने वाले पश्चिमी रंग में रंगे मुहम्मद अली जिन्ना आंखों के तारे बन जाते हैं। क्या आज भी कहीं न कहीं हम उसी मानसिकता के शिकार तो नहीं हो रहे हैं। जिन्ना से लेकर गिलानी के बीच छः दशक की दूरियां हैं, किंतु सवाल वही हैं जो 1947 में हमारे सामने थे। द्विराष्ट्रवाद आज भी दंश दे रहा है।

वार्ताकार इसीलिए भी उम्मीद नहीं जगाते, क्योंकि हमारे समय के सवालों का हल आज की राजनीति के पास नहीं है। आजादी मांग रहे लोगों से यह पूछने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है कि आजादी लेकर क्या करोगे और आजादी के बाद क्या होगा। आजादी एक सपना है जिसका बाजार है, जो बिक सकता है। लेकिन इस आजादी के मायने बहुत अलग हैं। वह आजादी एक कश्मीरियत की आजादी है या हिंदू भारत से आजादी,इस सवाल पर हमें गंभीरता से सोचना होगा। शायद इसीलिए इस कथित आजादी के दीवानों और पत्थर बाजों को अपनी आजादी में सबसे बड़ा रोड़ा सेना दिखती है। इसलिए सेना को बदनाम कर, उसे वापस बुलाने के राजनीतिक और मानवाधिकारवादी षडयंत्र सचेतन तरीके से चलाए जा रहे हैं। कश्मीर पर हो रही वार्ताओं में दरअसल कश्मीर के सवाल नहीं, विकास के प्रश्न नहीं, रोजगार के सवाल नहीं हैं - ऐसी जिदें हैं जिसे पूरा कर पाना भारतीय राज्य के लिए संभव नहीं है। कश्मीर की राजनीति में दिल्ली की सरकार के खिलाफ बोलने की एक प्रतियोगिता चल रही है और उसमें कश्मीर की नई पीढ़ी का भविष्य खराब हो रहा है। अलगाववादियों और राजनीतिक नेताओं ने अपनी संतानों को विदेशों में शिक्षा के लिए भेजकर, स्थानीय सामान्य युवाओं के हाथ में पत्थर पकड़ा दिए हैं। ये पत्थर देश की एकता और अखंडता पर भी बरस रहे हैं उनकी निजी जिंदगी को तबाह भी कर रहे हैं। भय, खौफ और लाशों के ये व्यापारी हमारे नौजवानों को हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा, शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें, वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सकें तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। आजादी के सपनों के व्यापारियों की हरकतों पर इन्हीं प्रयासों से रोक लगाई जा सकती है। कश्मीर पर हो रही हर तरह की पहल को शुरू होने के पहले ही विफल करने की कोशिशें भी इसीलिए शुरू हो जाती हैं क्योंकि कश्मीर वहां की अलगाववादी ताकतों के लिए एक बड़ा व्यापार है। 22 फरवरी,1994 को भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव में कहा था कि “जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। शेष भारत से उसे अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक उपायों से प्रतिरोध किया जाएगा।” कोई भी वार्ताकार संसद में लिए गए इस संकल्प को न भूले और देश विरोधी ताकतों को मंसूबों को समझते हुए कश्मीर को बचाने के लिए किए जा रहे सकारात्मक प्रयत्नों को आगे बढाने के लिए मदद करे। क्योंकि इससे ही कश्मीर घाटी में जमी बर्फ पिधल सकती है।

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

फिर भी क्यों भूखा है भारत ?

-संजय द्विवेदी
अनाज गोदामों में भरा हो और भुखमरी देश के गांव, जंगलों और शहरों को डस रही हो तो ऐसे लोककल्याणकारी राज्य का हम क्या करें ? वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर भारत जैसे देश का 67 वें स्थान पर रहना हमें चिंता में डालता है। इतना ही नहीं इस सूची में पाकिस्तान 52 वें स्थान पर है, यानि हमसे काफी आगे। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों में तीसरे नंबर पर गिने जा रहे देश भारत का एक चेहरा यह भी है जो खासा निराशाजनक है। यह बताता है कि हमारे आधुनिक तंत्र की चमकीली प्रगति के बावजूद एक भारत ऐसा भी है जिसे अभी रोटियों के भी लाले हैं। भुखमरी में लड़ने में हम चीन और पाकिस्तान से भी पीछे हैं। ऐसे में हमारी चकाचौंध के मायने क्या हैं? एक गणतंत्र में लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना पर ये चीजें एक कलंक की तरह ही हैं। हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं, जहां लोंगों को दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ( आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक,2010 में 84 देशों की सूची में भारत का 67 वां स्थान चिंता में डालने वाला है। भारत को कुपोषण और भरण पोषण के मामले में महिलाओं की खराब स्थिति के कारण काफी नीचे स्थान मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 42 प्रतिशत कमजोर पैदायशी भारत में हैं। इस मामले में पाकिस्तान हमसे पांच प्रतिशत की बेहतर स्थिति में है। जाहिर तौर पर ये चिंताएं समूची दुनिया को मथ रही हैं। शायद इसीलिए भुखमरी के खिलाफ पूरी दुनिया में एक चिंतन चल रहा है। भारत में भी भोजन का अधिकार दिलाने के लिए कई जनसंगठन काम कर रहे हैं और इसे कानूनी जामा पहनाने की बातें भी हो रही हैं। दुनिया के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी सम्मेलन में तय विकास लक्ष्य के जरिए 1990 और 2015 के बीच भुखमरी की शिकार जनसंख्या का अनुपात आधा करने का लक्ष्य रखा था। हालांकि दुनिया भर में चल प्रयासों से भुखमरी में कमी आई है और लोगों को राहत मिली है। किंतु अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है क्योंकि समस्या वास्तव में गंभीर है। आम तौर पर यह माना जाता है कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था सुधरती है तो वहां भुखमरी के हालात कम होते हैं। किंतु भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के सामने ये आंकड़े मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। देश में तेजी से बढ़ी महंगाई और बढ़ती खाद्यान्न की कीमतें भी इसका कारण हो सकती हैं। खासतौर पर गांवों, वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोग इन हालात से ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि सरकारी सुविधा देने का तंत्र कई बार नीचे तक नहीं पहुंच पाता। ग्लोबल हंगर इंडेक्स को सामने रखते हुए हमें अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और जनवितरण प्रणाली को ज्यादा प्रभावी बनाने की जरूरत है। शायद सरकार की इन्हीं नीतियों से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई,2010 को कहा था कि “जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। यहां 6000 टन से ज्यादा अनाज सड़ चुका है। ” इसी तरह 12 अगस्त,2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि –“ अनाज सड़ने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे। इसके लिए केंद्र हर प्रदेश में एक बड़ा गोदाम बनाने की व्यवस्था करे।” जाहिर तौर पर देश की जमीनी स्थिति को अदालत समझ रही थी किंतु हमारी सरकार इस सवाल पर गंभीर नहीं दिख रही थी। यहां तक कि हमारे कृषि मंत्री अदालत के आदेश को सुझाव समझने की भूल कर बैठे जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है। जबकि हमारी सरकार तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ा चुकी थी। आज कुपोषण के हालात हमारी आंखें खोलने के लिए काफी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश में 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और तीन साल से कम के 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। अनाज के कुप्रबंधन में सरकार की विफलताएं सामने हैं और इसके चलते ही इस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं। जिस देश में भारी मात्रा में अनाज सड़ रहा हो वहां लोग भुखमरी या कुपोषण के शिकार हों यह कतई अच्छी बात नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इस समस्या के कारगर निदान के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि देश का नाम इस तरह की सूचनाओं से खराब होता है। हम कितनी भी प्रगति कर लें, हमारी अर्थव्यवस्था कितनी भी कुलांचे भर ले किंतु अगर हम अपने लोगों के लिए ईमानदार नहीं हैं,तो इसके मायने क्या हैं। हमारे लोग भूखे हैं तो इस जनतंत्र के भी मायने क्या हैं। जाहिर तौर पर हमें ईमानदार कोशिशें करनी होंगीं। वरना एक जनतंत्र के तौर पर हम दुनिया के सामने मानवीय और सामाजिक सवालों पर यूं ही लांछित होते रहेगें। गांधी के इस देश में आम आदमी अगर व्यवस्था के केंद्र में नहीं है तो विकल्प क्या हैं। जगह-जगह पैदा हो रहे असंतोष और लोकतंत्र के प्रति जनता में एक तरह का निराशाभाव इन्हीं कारणों से प्रबल हो रहा है। क्या हम अपने लोकतंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने के लिए आगे बढेंगें या इसी चौंधियाती हुयी चमकीली प्रगति में अपने मूल सवालों को गंवा बैठेगें? यह एक यक्ष प्रश्न है इसके ठोस और वाजिब हल तलाशने की अगर हमने कोशिश न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

कला आलोचना में व्यापक संभावनाएं : मनीष




पत्रकारिता विश्वविद्यालय में चित्रकार मनीष पुष्कले का व्याख्यान


भोपाल 13 अक्टूबर। रजा फेलोशिप से सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकार मनीष पुष्कले का कहना है कि भारत में कला एवं सांस्कृतिक समीक्षा का स्तर दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में आलोचना केवल रिपोर्ताज तक ही सीमित है, इस कारण भारत में अच्छे आलोचकों एवं समीक्षकों की कमी है। श्री पुष्कले बुधवार को माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंपर्क विभाग द्वारा ’व्यावसायिक संचार का सौंदर्यशास्त्र’ विषय पर एक सेमीनार को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने छात्रों से कहा कि वे कला आलोचना के प्रति अपनी समझ विकसित करें और इस क्षेत्र में आगे आएं, क्योंकि इस क्षेत्र में असीम सम्भावनाएं हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे मनीष पिछले बीस सालों से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं अपने छात्र जीवन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय के परिसर ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया है। मनीष पुष्कले के चित्रों की 500 से ज्यादा प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। भारत के अलावा 55 अन्य देशों में भी उनके चित्रों की प्रदर्शनी हो चुकी है। मनीष ने पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय में बिताए गए समय के अनुभवों को छात्रों के साथ बांटा, उन्होंने कहा कि इसके चलते वह भाषा के प्रति अपनी एक नई नजर और बेहतर समझ विकसित कर पाए, जिससे उनकी भाषा को मजबूती मिली। उन्होंने कहा कि भाषा का चित्रों की अभिव्यक्ति में काफी अहम योगदान रहता है। उन्होंने छात्रों से कहा कि वह भाषा का सिर्फ एक योग्यता तक सीमित न रखें, बल्कि वह भाषा के प्रति श्रद्धा भी रखें। मनीष का कहना था कि हमारी देश में भाषा का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है, हमारे देश ने चार धर्म दिए हैं, कई महाकाव्य दिए हैं। उन्होंने भाषा में नई सम्भावनाओं को तलाशने पर जोर दिया। साहित्य को उन्होंने वैचारिक शक्ति व भाषाई समझ विकसित करने वाला माध्यम बताया। छात्रों को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा कि वे जीवन की आपाधापी में अपने सपनों को देखना बन्द न करें बल्कि उसको जीने की कोशिश करें। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि अपने छात्रों को ऊंचाईयाँ छूते देख उन्हें काफी खुशी होती है। इस दौरान विश्वविद्यालय के शिक्षक व बडी संख्या में छात्र-छात्राएं मौजूद रहे। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी एवं आभार जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव ने व्यक्त किया।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

पाक जैसे पड़ोसी हों तो दुश्मनों की जरूरत क्या है ?


मुर्शरफ ने जो कहा वही पाकिस्तानी राजनीति का मूल चरित्र
- संजय द्विवेदी

अगर पाकिस्तान जैसे पड़ोसी हों तो आपको दुश्मनों की जरूरत नहीं है। अपनी कुठांओं और आंतरिक बदहाली का शिकार, यह विफल राष्ट्र, खुद से ज्यादा भारत की चिंता करता है। हमारी आंतरिक समस्याओं में अतिरिक्त रूचि दिखाकर वह अपने आवाम को भारत विरोध की धुट्टी पिलाता रहता है। पाकिस्तान के मन में अपने पड़ोसी के प्रति कैसे षडयंत्रकारी विचार हैं अगर जानना है तो मुशर्रफ की ओर देखिए, क्योंकि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने यह स्वीकार कर लिया है कि पाकिस्तान ने ही कश्मीर में लड़ने के लिए भूमिगत आतंकी समूहों को प्रशिक्षित किया था। एक जर्मन पत्रिका में दिए इंटरव्यू ने यह जहर परवेज मुर्शरफ ने उगला है। कारगिल घुसपैठ का भी का भी पाकिस्तान के इस पूर्व शासक को कोई अफसोस नहीं हैं, क्योंकि भारत घृणा ही पाकिस्तान की राजनीति का एक अनिवार्य तत्व है और परवेज मुशर्रफ यही कर रहे हैं।

पाकिस्तान में अब एक नई पार्टी बनाकर अपनी दूसरी राजनीतिक पारी की शुरूआत करने जा रहे परवेज मुशर्रफ का यह बयान निश्चय ही सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। इस बहाने वे देश में अपनी अलोकप्रियता कम करने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि इन दिनों में पाकिस्तान में उन्हें लेकर बहुत अच्छे भाव नहीं हैं। उनकी राजनीतिक पार्टी को अपनी जड़ें जमाने के लिए अतिवादी और आतंकी समूहों के समर्थन की जरूरत है और उसके तहत ही उन्होंने ये बातें कहीं हैं। किंतु इससे इतना तो पता ही चलता है कि पाकिस्तान की भारत के प्रति क्या सोच और रणनीति रही है। पाकिस्तान ने हमेशा भारत में आतंकवाद को पोषित करने का काम किया है। परवेज मुशर्रफ के इस बयान ने दरअसल पाकिस्तानी राजनीति और सरकार के असली चेहरे को उजागर कर दिया है। वहां की पूरी राजनीति दरअसल भारत घृणा के तत्व से ही प्रेरणा पाती है और कुर्सी पर बैठने वाला हर शासक भारत के विरूद्ध अभियान चलाकर अपने को बचाए रखना चाहता है। क्योंकि पाकिस्तान वास्तव में एक विफल देश बन चुका है, जिसके पास अपनी समस्याओं का समाधान नहीं हैं। सो उसके नेताओं के सामने यही विकल्प है कि वे भारत का भय दिखाकर अपने देश को संभाले रहें। पाकिस्तान में आयी विकराल बाढ़ और तबाही के समय वहां की राजनीति का असली चेहरा लोगों ने देखा है। इतनी संवेदनहीन राजनीति के लोग जब काश्मीर के लोगों को न्याय दिलाने की बात करते हैं तो हंसी आती है। परवेज मुशर्रफ स्वयं बाढ़ की तबाही के दौरान कहीं नजर नहीं आए। पाकिस्तान की कश्मीर में अतिरिक्त रूचि के कारण ही, आजादी के बाद से ही कश्मीर के भाग्य में चैन नहीं है, जैसे-तैसे भारत विलय के बाद से आज तक वह लगातार खूनी संघर्षों का अखाड़ा बना हुआ है। सही अर्थो में भारत के अप्राकृतिक विभाजन का जितना कष्ट कश्मीर ने भोगा है, वह अन्य किसी राज्य के हिस्से नहीं आया। दिल्ली के राजनेताओं की नासमझियों ने हालात और बिगाड़े, आज हालात ये हैं कि कश्मीर के प्रमुख हिस्सों लद्दाख, जम्मू और घाटी तीनों में आतंकवाद की लहरें फैल चुकी हैं। इनमें सबसे बुरा हाल कश्मीर घाटी का है, जहां सिर्फ सेना को छोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोलने वाला कोई नहीं है। आखिर इन हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? वे कौन से हालात हैं वे कौन लोग हैं जो पाकिस्तान षड्यंत्रों का हस्तक बनकर इस्लामी आतंकवाद की लहर की सवारी कर रहे है।

हालात जितने भी बुरे हों, हम कश्मीर विहीन भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते, इसलिए कश्मीर मसले से जुड़े हर पक्ष के साथ हमें संवेदनशीलता से पेश आना होना। कश्मीर को राजनीति और तिकड़मों से नहीं सुधारा जा सकता । यह हमने चुनी गयी सरकारें गिराकर तथा केंद्र के कठपुतली मुख्यमंत्रियों तथा राज्यपालों को बिठाकर दिख लिया है। सेना की सीमाएं क्या हैं, यह भी हमने देख लिया है। सारी कवायदों के बावजूद, जगमोहन की उपस्थिति में भी कश्मीरी पंडितों को घर छोड़ना पड़ा था, इसलिए कश्मीर के प्रसंग पर हमारी पराजय के संदेश बहुत खतरनाक होंगे और एक राष्ट्र-राज्य के रूप में हम अपनी विफलता का इतिहास अपने ही हाथों से लिख रहे होंगे । यह पराजय सिर्फ दिल्ली में बैठी सरकार की नही होगी, पराजय देश की 1 अरब जनता की होगी। हमारे उस इतिहास की होगी जो सालों-साल कश्मीर को अपने मुकुट और ‘धरती के स्वर्ग’ के रूप में अपनी स्मृति में रखता आया है। हम कश्मीर में अपनी पराजय से इस्लामी कट्टरवाद के सामने समर्पण का इतिहास लिखेंगे । इसलिए कश्मीर को कैसे भी बचाना देश के राजनीतिक नेतृत्व और जनता की जिम्मेदारी है । यह हार हमें विश्व मंच पर मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी । इस्लामी कट्टरपंथ की यह जीत समूचे उप-महाद्वीप में सांप्रदायिक विद्वेष की लपटों का कारण बनेगी। भारत में रहने वाले हिंदू-मुस्लिमों के रिश्तों की बुनियाद इससे हिल जाएगी । देश के हिंदू-मुसलमानों को इस खतरे को समझना होगा। किसी ‘राजनीतिक एजेंडे’ के आधार पर नहीं, दिनायतदारी के आधार पर हमें कश्मीर का माथा झुकने नहीं देना है। जाहिर है, भारत को अपनी लड़ाई का आधार अब इस्लामी कट्टरंपंथ से संघर्ष को बनाना होगा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद सही अर्थों में कुंठा और अराजक मानसिकता से प्रेरणा पाता है। उससे कश्मीरी मानस के हितलाभ की कोई सोच जुड़ी हुई नहीं है। भारत को यहीं चोट करनी होगी। अपने राजनीतिक एजेंडों से परे कश्मीर को एक विशेष विमर्श का हिस्सा मानकर हमें समाधान के रास्ते तलाशने होंगे। अफसोस है कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला जैसे लोग भी आज गलत भाषा बोल रहे हैं। उमर अब्दुल्ला जो भाषा बोल रहे हैं उसे कोई भी स्वाभिमानी समाज और राष्ट्र कैसे सह सकता है। ऐसे में राज्य की विधानसभा में भारतीय जनता के विधायकों के द्वारा उनका विरोध जायज ही कहा जाएगा। उमर ने अपने नासमझी भरे बयानों से निरंतर भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की है। आखिर वे किसका दिल जीतना चाहते हैं ? वे किसे खुश करना चाहते हैं? अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक विफलताओं पर परदा डालने के लिए राजनेता ऐसे बयान देते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु हमें देखना होगा कि एक देश के नाते हम अपने ऐसे नेताओं को कितना और कब तक स्वीकार करें। ऐसे नेताओं की पाकपरस्ती और भारत के प्रति अनुदार रवैया चिंता में डालता है। एक मुख्यमंत्री ही अगर अलगाववादियों की भाषा बोलने लगे तो कहने के लिए क्या बचता है।

जहां तक परवेज मुशर्रफ जैसे पाकिस्तानी नेताओं की बात है -संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार और धार्मिक भावनाओं व भारत विरोध के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले ये जहरीले नेता निश्चय ही पाकिस्तान को बरबाद कर रहे हैं और अपनी नकारात्मक राजनीति से भारत को भी प्रभावित कर रहे हैं। अफसोस है कि जनता भी इनकी चालों को न समझकर राजनीति का शिकार बन रही है। जबकि बदलती दुनिया के मद्देनजर राजनीति के मुद्दे बदल रहे हैं किंतु पाकिस्तान के भाग्य में शायद चैन नहीं है। क्योंकि वहां के राजनीतिक नेतृत्व में देश और अपनी जनता के प्रति ईमानदारी नहीं है।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

भोपाल के हिंदी भवन में संजय द्विवेदी का सम्मान


वाड्.मय पुरस्कार से नवाजे गए संजय द्विवेदी
मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने किया सम्मान


भोपाल,10 अक्टूबर। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने रविवार को भोपाल स्थित हिंदी भवन के सभागार में आयोजित समारोह में युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडियाः नया दौर- नई चुनौतियां’ के लिए इस वर्ष के वाड्.मय पुरस्कार से सम्मानित किया। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह पुरस्कार दिया जाता है।
मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा आयोजित इस सम्मान समारोह की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर ने की और विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद रधुनंदन शर्मा मौजूद थे। कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण समिति के अध्यक्ष रमेश दवे ने किया और आभार प्रदर्शन कैलाश चंद्र पंत ने किया। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं। सम्मान समारोह में वितरित पुस्तिका में कहा गया है कि- “वर्ष 2010 में प्रकाशित इस कृति में लेखक के आत्मकथ्य सहित 27 लेख हैं। इन लेखों में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की दशा व दिशा का आज के बाजारवाद के परिप्रेक्ष्य में विशद् तार्किक विवेचन किया गया है। पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी स्वयं पत्रकारिता को जी रहे हैं, इसलिए पुस्तक के लेखों में विषय की गहराई, सूक्ष्मता और अनुभवपरकता तीनों मौजूद है। पुस्तक मीडिया से जुड़े कई अनदेखे पृष्ठ खोलने में सफल है।” श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों के अलावा इलेक्ट्रानिक और वेबमीडिया में भी महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। उनकी अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और छः पुरस्कार भी मिल चुके हैं। संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।

पुस्तक परिचयः
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

भोपाल के हिंदी भवन में संजय द्विवेदी का सम्मान-2

भोपाल के हिंदी भवन में संजय द्विवेदी का सम्मान-3


संजय द्विवेदी को सम्मान देते हुए महामहिम राज्यपाल (मप्र) श्री रामेश्वर ठाकुर, मंत्री श्री बाबूलाल गौर, सांसद रधुनंदन शर्मा, प्रो. रमेश दवे और कैलाशचंद्र पंत।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दस बरस का छत्तीसगढ़

स्थापना दिवस( 1 नवंबर) के प्रसंग पर एक विहंगावलोकनः
छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र दस वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।
समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।
अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।
शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ ‘विक्रम विलास’ में लिखा हैः
जिनमें दक्षिण कौशल देसा,
जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,
तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,
पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।

राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता। नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है। देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सल के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। दसवें साल पर छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

पत्रकार संजय द्विवेदी को वाड्.मय पुरस्कार


भोपाल,5 अक्टूबर। युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडिया नया दौर नई चुनौतियां ’ के लिए इस वर्ष का वाड्.मय पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गयी है। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह सम्मान दिया जाता है। मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा संचालित इस सम्मान समारोह का आयोजन आगामी 10 अक्टूबर,2010 में 11 बजे भोपाल स्थित हिंदी भवन में किया गया है। समारोह के मुख्यअतिथि मप्र के राज्यपाल श्री रामेश्वर ठाकुर होंगे तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री श्री बाबूलाल गौर करेंगें। विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद श्री रधुनंदन शर्मा मौजूद होंगें। श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं और संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

संचार माध्यमों का संयम


अयोध्या मामले पर मीडिया की भूमिका को सलाम कीजिए
-संजय द्विवेदी

मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका पर उठते सवालों के बीच अयोध्या मामले पर उसकी प्रस्तुति और संदेश एक नया चित्र उपस्थित करते नजर आते हैं। अयोध्या के मामले पर फैसला आने से पहले ही मीडिया ने जो रूख और लाइन अख्तियार की, वह अपने आप में सराहनीय है। अयोध्या के फैसले को लेकर जिस तरह का वातावरण बनाया गया था, उससे एक दहशत और सिहरन का अहसास होता था। कई बार लगता कि कहीं फिर हम उन्हीं खूरेंजीं दिनों में न लौट जाएं, जिनकी यादें आज भी हिंदुस्तान को सिहरा देती हैं। हुंकारों और ललकारों के उस दौर से हालांकि हिंदुस्तान बहुत आगे निकल आया है और आज की पीढ़ी के मूल्य व उसकी जरूरतें बहुत जुदा हैं। मीडिया ने देश की इस भावना को पकड़कर अयोध्या पर अपनी लाइन ली और उसने जिस तरह अपने को प्रस्तुत किया, उससे मीडिया की एक राष्ट्रीय भूमिका समझ में आती है। मीडिया पर जिस तरह की गैरजिम्मेदार प्रस्तुति के आरोप पिछले दिनों लगे हैं, अयोध्या मामले पर उसकी गंभीरता ने उसे पापमुक्त कर दिया है।
अयोध्या का फैसला आने से पहले से ही आप देश के प्रिंट मीडिया पर नजर डालें देश के सभी प्रमुख अखबार किस भाषा में संवाद कर रहे थे ? जबकि 90 के दशक में भारतीय प्रेस परिषद ने माहौल को बिगाड़ने में कई अखबारों को दोषी पाया था। किंतु इस बार अखबार बदली हुयी भूमिका में थे। वे राष्ट्रधर्म निभाने के लिए तत्पर दिख रहे थे। फैसले के पहले से ही अमन की कहानियों को प्रकाशित करने और फैसले के पक्ष में जनमानस का मन बनाने में दरअसल अखबार सफल हुए। ताकि सांप्रदायिकता को पोषित करने वाली ताकतें इस फैसले से उपजे किसी विवाद को जनता के बीच माहौल खराब करने का साधन न बना सकें। यह एक ऐसी भूमिका थी जिससे अखबारों एक वातावरण रचा। मीडिया की ताकत आपको इससे समझ में आती है। शायद यही कारण था कि राजनीति के चतुर सुजान भी संयम भरी प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर हुए। इसका कारण यह भी था कि इस बार मीडिया के पास भड़काने वाले तत्वों के लिए खास स्पेस नहीं था। उस हर आदमी से बचने की सचेतन कोशिशें हुयीं, जो माहौल में अपनी रोटियां सेंकने की कोशिशें कर सकता था। अदालत का दबाव, जनता का दबाव और मीडिया के संपादकों का खुद का आत्मसंयम इस पूरे मामले में नजर आया। टीवी मीडिया की भूमिका निश्चय ही फैसले के दिन बहुत प्रभावकारी थी। एक दिन पहले से ही उसने जो लाइन ली, उसने फैसले को धैर्य से सुनने और संयमित प्रतिक्रिया करने का वातावरण बनाया। यह एक ऐसी भूमिका थी जो मीडिया की परंपरागत भूमिका से सर्वथा विपरीत थी। टीवी सूचना माध्यमों को आमतौर पर बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। टीआरपी की होड़ ने दरअसल उन्हें उनके लक्ष्य पथ से विचलित किया भी है। किंतु अयोध्या के मामले पर उसकी पूरी प्रस्तुति पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का बड़े से बड़ा आलोचक सवाल खड़े नहीं कर सकता। इस पूरे वाकये पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एक अभियान की तरह अमन के पैगाम को जनता तक पहुंचाया और राजनीतिक व धार्मिक नेताओं को भी इसकी गंभीरता का अहसास कराया। यह मानना होगा कि कोर्ट के फैसले को सुनने और उसके फैसले को स्वीकारने का साहस और सोच, सब वर्गों में दरअसल मीडिया ने ही पैदा किया। राममंदिर जैसे संवेदनशील सवाल पर साठ साल आए फैसले पर इसीलिए देश की राजनीति में फिसलन नहीं दिखी, क्योंकि इस बार एजेंडा राजनेता नहीं, मीडिया तय कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि 1990 से 92 के खूंरेंजी दौर के नायक इस बार संचार माध्यमों में वह स्पेस नहीं पा सके जिसने उन्हें मंदिर या बाबरी समर्थकों के बीच महानायक बनाया था। मीडिया संवाद की एक नई भाषा रच रहा था जिसमें जनता के सवाल केंद्र में थे, एक तेजी से बढ़ते भारत का स्वप्न था, नए भारतीयों की आकांक्षाएं थीं, सबको साथ रहने की सलाहें थीं। यह एजेंडा दरअसल मीडिया का रचा हुआ एजेंडा था, अदालत के निर्देशों ने इसमें मदद की। उसने संयम रखने में एक वातावरण बनाया। देश में कानून का राज चलेगा, ऐसी स्थापनाएं तमाम टीवी विमर्शों से सामने आ रही थीं।
आप कल्पना करें कि मीडिया अगर अपनी इस भूमिका में न होता तो क्या होता। आज टीवी न्यूज मीडिया जितना पावरफुल है उसके हाथ में जितनी शक्ति है, वह पूरे हिंदुस्थान को बदहवाश कर सकता था। प्रायोजित ही सही, जैसी प्रस्तुतियां और जैसे दृश्य टीवी न्यूज मीडिया पर रचे गए, वे बिंब भारत की एकता की सही तस्वीर को स्थापित करने वाले थे। मीडिया, फैसले के इस पार और उस पार कहीं नहीं था, वह संवाद की स्थितियां बहाल करने वाला माध्यम बना। फैसले से पहले ही उसने अपनी रचनात्मक भूमिका से दोनों पक्षों और सभी राजनीतिक दलों को अमन के पक्ष में खड़ाकर एक रणनीतिक विजय भी प्राप्त कर ली थी, जिससे फैसले के दिन कोई पक्ष यू-टर्न लेने की स्थितियों में नहीं था। सही मायने में आज देश में कोई आंदोलन नहीं है, मीडिया ही जनभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रगटीकरण का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। देश ने इस दौर में मीडिया की इस ताकत को महसूसा भी है। फिल्म, टेलीविजन दोनों ने देश के एक बड़े वर्ग को जिस तरह प्रभावित किया है और आत्मालोचन के अवसर रचे हैं, वे अद्भुत हैं। पीपली लाइव जैसी फिल्मों के माध्यम से देश का सबसे प्रभावी माध्यम(फिल्म) जहां किसानों की समस्या को रेखांकित करता है वही वह न्यूज चैनलों को मर्यादाएं और उनकी लक्ष्मणरेखा की याद भी दिलाता है। ऐसे ही शल्य और हस्तक्षेप किसी समाज को जीवंत बनाते हैं। अयोध्या मामले पर मीडिया और पत्रकारिता की जनधर्मी भूमिका बताती है कि अगर संचार माध्यम चाह लें तो किस तरह देश की राजनीति का एजेंडा बदल सकते हैं। माध्यमों को खुद पर भरोसा नहीं है किंतु अगर वे आत्मविश्वास से भरकर पहल करते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। क्योंकि सही बात को तो बस कहने की जरूरत होती है, अच्छी तो वह लग ही जाती है। अयोध्या मामले के बहाने देश के मीडिया ने एक प्रयोग करके देखा है, देश के तमाम सवालों पर अभी उसकी ऐसी ही रचनात्मक भूमिका का इंतजार है।