शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीरः कब पिघलेगी बर्फ


-संजय द्विवेदी
इन्तहा हो गई है, कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती । आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी लगता है कि सूइयां रेकार्ड पर ठहर सी गयी हैं। समस्या के समाधान के लिए सारी ‘पैथियां’ आजमायी जा चुकी हैं और अब वर्तमान प्रधानमंत्री ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ से इस लाइलाज बीमारी का हल करने में लगे हैं। ‘जाहिर है मामला ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सवालों जैसा आसान नहीं है, कश्मीर में आपकी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके।
यह बात बुरी लगे पर मानिए कि पूरी कश्मीर घाटी में आज भारत की अपनी आवाज कहने और उठाने वाले लोग न्यूनतम हो गए हैं । आप सेना के भरोसे कितना कर सकते हैं, या जितना कर सकते हैं-कमोबेश घाटी उतनी ही देर तक आपके पास है। यहां वहां से पलायन करती हिंदू पंडितों की आबादी के बाद शेष बचे मुस्लिम समुदाय की नीयत पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना जरूर जोड़ना है कश्मीर में गहरा आए खतरे के पीछ सिर्फ उपेक्षा व शोषण नहीं है। ‘धर्म’ के जुनून एवं नशे में वहां के युवाओं को भटकाव के रास्ते पर डालने की योजनाबद्ध रणनीति ने भी हालात बदतर किए हैं, पाकिस्तान का पड़ोसी होना इस मामले में बदतरी का कारण बना । ये सब स्थितियां चाहे वे भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक हों, मिलकर कश्मीर का चेहरा बदरंग करती हैं। लेकिन सिर्फ विकास व उपेक्षा को कश्मीर से उठती अलगावादी आवाजों का कारण मानना समस्या को अतिसरलीकृत करके देखना है। बंदूक से समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं, विकास नहीं आ सकता, लेकिन ‘इस्लाम का राज’ आ सकता है-समस्या के मूल में अंशतः सही, यह भावना जरूर है। अगर यह बात न होती तो पाकिस्तान के शासकों व दुनिया के जघन्यतम अपराधी लादेन की कश्मीरियों से क्या हमदर्दी थी ? भारत के खिलाफ कश्मीर की युवाशक्ति के हाथ में हथियार देने वाले निश्चय ही एक ‘धार्मिक बंधुत्व भाव व अपनापा’ जोड़कर एक कश्मीरी युवक को अपना बना लेते हैं। वहीं हम जो अनादिकाल से एक सांस्कृतिक परंपरा व भावनात्मक आदान-प्रदान से जुड़े हैं, अचानक कश्मीरियों को उनका शत्रु दिखने लगते हैं। लड़ाई यदि सिर्फ कश्मीर की, उसके विकास की, वहां के नौजवानों को काम दिलाने की थी तो वहां के कश्मीरी पंडित व सिखों का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर विवश क्यों किया गया ? जाहिर है मामला धर्मांधता से प्रेरित था। उपेक्षा के सवाल नारेबाजी के लिए थे, निशाना कुछ और था। इसलिए यह कहने में हिचक नहीं बरतनी चाहिए कि सेना के अलावा आज घाटी में ‘भारत माँ की जय’ बोलने वाले शेष नहीं रह गए हैं। जिन लोगों की भावनाएं भारत के साथ जुड़ी हैं, वे भी कुछ मजबूरन-कुछ मसलहतन जुबां पर ताले लगाकर खामोश हैं। मंत्री भयभीत हैं, अफसरान दहशत जदा हैं, आतंक का राज जारी है।इन हालात में प्रधानमंत्री कश्मीर में ‘अमन का राज’ लाना चाहते हैं । लेकिन क्या इस ‘शांति प्रवचन’ से पाकिस्तान और लश्कर के गुंडे कश्मीर में आतंक का प्रसार बंद देंगे। आंखों पर पट्टी बांधकर जुनूनी लड़ाई लड़ने वाले अपने हथियार फेंक देंगे। जाहिर है ये बातें इतनी आसान नहीं दिखतीं । जब तक सीमा पार से आतंकवाद का पोषण नहीं रुकेगा, कश्मीर की समस्या का समाधान सोचना भी बेमानी है। कश्मीर की भौगोलिक स्थितियां ऐसी हैं कि घुसपैठ को रोकना वैसे भी संभव नहीं है। अन्य राष्ट्रों से लगी लंबी सीमा, पहाड़ और दर्रे वहां घुसपैठ की स्थितियों को सुगम बनाते हैं। पाक व तालिबान की प्रेरणा व धन से चल रहे कैंपों से प्रशिक्षित उग्रवादी वहां के आंतकवाद की असली ताकत हैं। सरकार को इन हालात के मद्देनजर ‘आतंकवादी संगठनों’ की कृपा पाने के बजाए उनके प्रेरणास्त्रोतों पर ही चोट करनी होगी, क्योंकि जब तक विदेशी सहयोग जारी रहेगा, यह समस्या समाप्त नहीं हो सकती । हुर्रियत या अन्य कश्मीरी संगठनों से वार्ता कर भी ये हालात सुधर नहीं सकते, क्योंकि हुर्रियत अकेली न कश्मीरियों की प्रतिनिधि है, न ही उसकी आवाज पर उग्रवादी हथियार डालने वाले हैं। जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। आबादी का संतुलन बनाना दूसरी बड़ी चुनौती है। कुछ मार्ग निकालकर घाटी के क्षेत्रों में भूतपूर्व सैनिकों को बसाया जाना चाहिए तथा कश्मीर पंडितों की घर वापसी का माहौल बनाना चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सके तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। सच्चे मन से किए गए प्रयास ही इस इलाके में जमी बर्फ को पिघला सकते हैं। यही बात कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘शिकारों’ पर फिर हंसी-खुसी और जिंदगी को लौटा सकती है। हवा से बारुद की गंध को कम कर सकती है और फिजां में खुशबू घोल सकती है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. sanjayji, bada marmik mudda hai. mai kashmir dekhne ki lalak me 2 month se intezar kar raha tha ki halat samanya ho jayenge r mai baba amarnathji ke darshan kar paunga. lekin mujhe yatra bich se hi adhuri chhodni padi. kyoki pahalgam se aage yatra ki anumati nahi mili. hame vapas lautna pada. vapsi ki problem thi. family ke sath banduko ke saye me chalna kitna dushkar hai yah to vahi samajh sakata hai jo yatra par ho....
    hey bhagwan in mandbudhiyo ko samajh de.....

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