शनिवार, 3 जुलाई 2010

बहादुर सेना, कमजोर सरकार और बेबस लोग !

देशतोड़क राजनीति से सावधान होने की जरूरत
- संजय द्विवेदी

दिल्ली में क्या इससे कमजोर सरकार कभी आएगी ? कमजोर इसलिए क्योंकि इस सरकार के लिए देश के सम्मान, देश की जनता के जान-माल और हमारे सेना-सुरक्षा बलों की जान की कोई कीमत नहीं है। हो सकता है कि हालात इससे भी बुरे हों। किंतु अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दिल्ली में इतनी बेचारी, लाचार और कमजोर सरकार आज तक नहीं आयी। थोपे गए नेतृत्व और स्वाभाविक नेतृत्व का अंतर भी इसी परिघटना में उजागर होता है। दिल्ली में एक ऐसे आदमी को देश की कमान दी गयी है जो आर्थिक मामलों पर जब बोलता है तो दुनिया सुनती है (बकौल बराक ओबामा)। किंतु उसके अपने देश में पिछले छः सालों से उसके राज में महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है किंतु वह आदमी अपने देश की महंगाई पर कुछ नहीं बोलता। परमाणु करार विधेयक पास कराने के लिए अपनी सरकार तक गिराने की हद तक जाने वाले हठी प्रधानमंत्री को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनकी सरकार के कार्यकाल में लोगों का जिंदगी बसर करना कितना मुश्किल है और कितने किसान उनके राज में आत्महत्या कर चुके हैं। यह एक ऐसी सरकार है जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता नहीं पिछले पांच सालों में अकेले नक्सली आतंकवाद में ग्यारह हजार लोग मारे जा चुके हैं। वह इस बात पर विमर्श में लगी है कि सेना का इस्तेमाल हो या न हो। क्या ऐसा इसलिए कि नक्सली आतंक एक ऐसे इलाके में है जहां आम आदिवासी रहते हैं जिन्हें मिटाने और समाप्त करने का साझा अभियान नक्सली नेताओं और सरकार ने मिलकर चला रखा है। झारखंड से लेकर बस्तर तक की जमीन जहां उसके असली मालिक वनपुत्र और आदिवासी रहते हैं, एक युद्ध भूमि में तब्दील हो गयी है। जहां विदेशी विचार(माओवाद) और विदेशी हथियारों से लैस लोग 2050 तक भारतीय गणतंत्र पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। फिर भी हमारी सरकार को इस इलाके में सेना नहीं चाहिए। भले नक्सली तीन माह में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों को अकेले बस्तर में ही न मार डालें। वे हजारों करोड़ की लेवी वसूलते हुए इन जंगलों में लैंड माइंस बिछाते रहें और हमारा राज्य रोम के जलने पर नीरो की तरह बांसुरी बजाता रहे।
अब थोड़ा देश के मस्तक पर नजर डाल लें। यह जम्मू कश्मीर का इलाका है जो कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था। आज इस क्षेत्र को हमारी सरकारों की घुटनाटेक और कायर नीतियों ने घरती के नरक में बदल दिया है। हमारी सेना के अलावा इस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कोई नहीं बचा है। कश्मीर के पंडितों के विस्थापन के बाद इस पूरे इलाके में पाकपरस्त आतंकी संगठनों का हस्तक्षेप है। उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधक भारतीय सेना है। हमारी महान सरकार अब सेना के हाथ से भी कवच-कुंडल छीनने पर आमादा है ताकि कश्मीर में भारतीय राज्य की एक और पराजय सुनिश्चित की जा सके। इस काम में दिल्ली की सरकार बराबर की भागीदार है। कश्मीर के मुख्यमंत्री और उनके पिता का सर्वाधिक दबाव इस बात पर है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव किया जाए। यह बदलाव क्यों किया जाए इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। किंतु बदलाव होने जा रहा है और प्रधानमंत्री ने उसे मंजूरी भी दे दी है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। यह एक ऐसी सूचना है जो हर भारतीय को हतप्रभ करने के लिए काफी है। देश के साठ सालों बाद भी हमारी सरकार अपनी ही सेना के खिलाफ खड़ी है। क्या भारतीय की राजनीति इतनी दिशाहारा और थकाहारा हो चुकी है? क्या हमारी सरकारें अपना विवेक खो चुकी हैं? वे सेना को मानवता और संवेदनशीलता सिखा रही है। नए बदलाव में सेना शत्रु को पकड़ने और गोली चलाने का अधिकार खो देगी। फिर सेना की जरूरत ही क्या है। ऐसे हालात में कहीं यह कश्मीर को पाक को सौंप देनी की एक लाचार कवायद तो नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ जब हमें कड़े संदेश देने की जरूरत है तब हम अपनी सेना को ही कमजोर बनाना चाहते हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारी सेना ने अनेक अवसरों पर अपने अप्रतिम साहस के प्रदर्शन से भारत के मान को बचाया है।जबकि राजनैतिक नेतृत्व सदा जमीनें छोड़ता, युद्धबंदियों को छोड़ता और समझौते करता आया है। इन्हीं समझौतों और वोट की कथित लालच ने हमारे नेताओं को इतना बेचारा बना दिया है कि हमारे नेता ही कहते हैं कि अगर अफजल गुरू को फांसी दी गयी तो कश्मीर सुलग जाएगा। तो आप बताएं इस समय कश्मीर क्यों सुलग रहा है। किसे फांसी दी गयी है। कश्मीर के नेता भारत के साथ रहने की कीमत वसूल रहे हैं। उन्हें इस देश से कोई लेना-देना नहीं है। नहीं तो वे विस्थापित हिंदुओं की वापसी की बात क्यों नहीं करते, पर उन्हें तो सेना की वापसी चाहिए ताकि वे आराम से पाकिस्तानी हुक्मरानों की गोद में जा बैठें। जो अब्दुला परिवार सालों से कश्मीरी राजनीति का सिरमौर बना है, भारत ने उनका इतना सम्मान किया पर वे आज अफजल गुरू की फांसी रोकने की अपीलें कर रहे हैं। दूसरा मुफ्ती परिवार भारतीय संविधान की शपथ लेकर देश का गृहमंत्री बनता है तो अपनी ही बेटी का अपहरण करवाकर आतंकियों की रिहाई का नाटक रचता है। दुर्भाग्य से ऐसे ही लोग भारत भाग्य विधाता बनकर बैठे हैं। इसी तरह पूर्वांचल के सात राज्यों का बुरा हाल है। असम से लेकर मणिपुर तक बुरी खबरें हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों ने असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक हालात बदतर कर रखें हैं। हमारी सरकारें उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं। राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सिर्फ पांच साल और वोट बैंक दिखता है। सो वे घुसपैठियों के राशन कार्ड बनवाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने और अवैध बस्तियां बसाने में सहयोगी बनते हैं। जाहिर तौर पर इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बहुत विकराल स्वरूप ले चुका है।
हम अपनी सेना और सुरक्षा बलों को लाचार बना कर पहले से तैयार बैठे शत्रुओं को अवसर सुलभ करा रहे हैं। अभी पाक प्रेरित आतंकवाद के लिए भी हमारी अपनी ताकत क्या है। हमारी सरकार को हर शिकायत लेकर अमरीका के दरबार में जाना पड़ता है। कल अगर सेना का भी मनोबल टूट गया तो उस दृश्य की कल्पना करना भी मुश्किल है कि हमारा क्या होगा। देश इस देश के लोगों का है, जो इसे बेबस निगाहों से देख रहे हैं। यह देश अगर दलित, मुस्लिम और ईसाई जैसी राजनीतिक बोलियों से चलाया जाएगा तो इसे कोई बचा नहीं सकता। शायद इसीलिए हम देश का तेजी से विघटन होता देख रहे है। यह विघटन चरित्र का है, नैतिकता का है, देशभक्ति का भी है। देश का राजनीतिक नेतृत्व किसी भी प्रकार का आर्दश प्रस्तुत कर पाने में विफल है। सारे संकटों में मौन ही हमारे राजनैतिक नेतृत्व का आर्दश बन गया है। आप देखें तो हाल के तीन बड़े संकटों भोपाल गैस त्रासदी, कश्मीर संकट और महंगाई पर देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी का कोई बयान नहीं आया है। ऐसा नेतृत्व क्या आपको संकटों से निजात दिला सकता है या आपकी जिंदगी के अँधेरों से मुक्ति दिला सकता है। प्रधानमंत्री से कोई उम्मीद करना तो व्यर्थ ही है क्योंकि उनकी नजर में हम भारत के लोगों का कोई मतलब नहीं है। ऐसे घने अंधेरे में आशा की कोई किरण नजर आती है तो वह शक्ति जनता के पास ही है कि वह अपने राजनीतिक नेतृत्व पर कोई ऐसा दबाव बनाए जिससे वह कम से कम देश के हितों, सुरक्षा के साथ सौदेबाजी न कर सके। देश में एक ऐसा अराजनैतिक अभियान शुरू हो जहां देश सर्वोपरि है, इस भावना का विस्तार हो सके। वरना हमारी राजनीति हमें यूं ही बांटती,तोड़ती और कमजोर करती रहेगी।

5 टिप्‍पणियां:

  1. पालतू प्रधानमंत्री है इनसे और उम्मीद ही क्या की जा सकती है ?देश को तोड़ना ही चाहते हैं ये लोग.

    जवाब देंहटाएं
  2. aur kiya bhee kya ja sakta hai... mukhya samasya desh ke system aur logon ki soch ki bhee hai..constitution ke reform ki jarurat hai.. aur educative class ke mindset to change karne kibhee jarurat hai... in samasyaaon ke liye hum hi doshi hain.. kyo ki unhe chunkar to hamne hi bheja hai.. ye baat alag hai ki pm sahab uper uper aa gaye...

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन। विचारोत्तेजक और ज्ञानवर्धक लेख।

    जवाब देंहटाएं
  4. बिल्कुल ठीक फरमाया... हमारे पास सेना है, वो जो सर पे कफन बांधकर चलती है और उसके चलने से दुश्मन के दिल हिल जाते हैं... लेकिन अफसोस है... इस देश के पास सरकार कमजोर है... और जब सरकारें कमजोर हों तो फिर बाकी की बात बेमानी हो जाती है... यही है कि हमारे पास हथियार हैं और फौलादी जिगर भी, लेकिन जो आदेश देगा हथियार चलाने के लिए... वो हमारा नहीं है... खैर रही बात बेबसी की, तो हमने खुद को बेबस बना रखा है जिस दिन हमें अपने होने का अहसास हुआ उस दिन ये बेबसी भी खत्म हो जाएगी... बस एक आवाज़, एक शोर की जरूरत ह और ये यन्नाटा ये खामोशी टूट जाएगी...

    जवाब देंहटाएं