शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

मैदानों में सना कीचड़

-संजय द्विवेदी

खेल और खेल उत्सव दोनों अब इतने पवित्र नहीं रहे कि उनसे बहुत नैतिक अपेक्षाएं पाली जाएं। हाकी के खिलाड़ियों के यौन उत्पीड़न को लेकर जो खबरें सामने आई हैं उसमें नया कुछ भी नहीं हैं। ये चीजें तभी सामने आती हैं जब इसमें कोई एक पक्ष विरोध में उतरता है या कोई किसी के पीछे पड़ जाए। यह दरअसल एक नैतिक सवाल भी है कि हम अपनी महिला खिलाड़ियों को इन वहशियों के हाथों में जाने से कैसे बचा सकते हैं, जबकि वे प्रमुख निर्णायक पदों पर हों। वह भी तब जबकि समर्पण पर पुरस्कार और स्वाभिमान दिखाने पर तिरस्कार मिलना तय हो। निर्णायक पदों पर बैठे पुरूष ही इन लड़कियों के भाग्य विधाता होते हैं। सवाल जब कोच जैसे पद का हो तो उसकी महिमा और बढ़ जाती है। एक मानवीय कमजोरी के नाते किसी का विचलित हो जाना स्वाभाविक है किंतु इसे एक चलन बना लेना और नैतिकता की सीमाओं को लांधकर महिलाओं के शोषण का कुचक्र रचना तो उचित नहीं कहा जा सकता। किंतु यह हो रहा है और हम इसे देखते रहने के लिए विवश हैं। सवाल यह भी है कि जो लड़की इन घटनाओं का विरोध करते हुए आगे आती है उसके साथ हमारा व्यवहार क्या होता है। क्या वह आगे के जीवन में सहज होकर इन मैदानों में खेल सकती है? अधिकारी वर्ग उसके प्रति एक शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण नहीं अपना लेता होगा ? और उसे अंततः मैदान से बाहर धकेलने की कोशिश क्या नहीं की जाती होगी ? क्योंकि उसने पुरूष सत्ता को चुनौती दी होती है।
अपने कोच और खेल अधिकारियों के खिलाफ जाना किसी भी खिलाड़ी के साधारण नहीं होता। वह तभी संभव होता है जब पानी सर से उपर जा चुका हो। आज हाकी पर जिस तरह के घिनौने आरोप हैं उससे मैदान तो गंदा हुआ ही है, आने वाली पीढ़ी को भी लोग मैदानों में भेजने में संकोच करेंगें। महिला हाकी वैसे ही इस देश में एक उपेक्षित खेल है। ऐसी घटनाओं के बाद वहां कौन सी रौनक लौट पाएगी,कहा नहीं जा सकता। अगर एक महिला खिलाड़ी अपने मुख्य कोच पर सेक्स उत्पीड़न के आरोप लगाती है तो शक की पूरी वजह है। कोच अपने को निर्दोष भले बता रहे हों किंतु जब महिला हाकी की एक पूर्व कप्तान हेलेन मेरी यह कहती हैं कि चार साल पहले उन्हें भी इस कोच के चलते ही हाकी छोड़नी पड़ी थी तो कहने को क्या रह जाता है। अब जबकि महिला आयोग भी इस मामले में दिलचस्पी ले रहा है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ सही निष्कर्ष और समाधान भी सामने आएंगें।
इसके साथ ही एक वृहत्तर प्रश्न यह भी उठता है कि हम अपने खेलों को सेक्स के साथ जोड़कर उसके उत्सवधर्म को एक बेहदूगी क्यों बना रहे हैं। इस पर भी सोचना जरूरी है। हमने देखा कि खेलों के उत्सवों में आज लड़कियां, वेश्याएं, शराब और अश्लील पार्टियां एक जरूरी हिस्सा हो गए हैं। इससे कौन सा खेल धर्म पुष्ट हो रहा है सोचना मुश्किल है। औरत की देह इस समय खेल प्रबंधकों और इलेक्ट्रानिक मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है । खेल उत्सव, सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह सभी संचार माध्यमों पर पसरा हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा । यह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और अन्य संचार माध्यमों से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। इस पूरे वातावरण को इलेक्ट्रानिक टीवी चेनलों ने आंधी में बदल दिया है। इंटरनेट ने सही रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुँचाया । पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी है। मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है, अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह ग्लोबल बना रहा है इसका उदाहरण विश्व कप फुटबाल बना। मीडिया रिपोर्ट से ही हमें पता चला कि वेश्यालय इसके लिए तैयार हुए और दुनिया भर से वेश्याएं वहाँ पहुंचीं।कुछ विज्ञापन विश्व कप के इस पूरे उत्साह को इस तरह व्यक्त करते है ‘मैच के लिए नहीं, मौज के लिए आइए’ । दुनिया भर की यौनकर्मियों ने दक्षिण अफ्रीका के फुटबाल मैचों में एक अलग ही रंग भरा। खेलों में उत्साह भरने के लिए उसके प्रबंधक और मीडिया मिलकर जैसा वातावरण रच रहे हैं उसमें खेलों को गंदगी से मुक्त कराना कठिन है।
हमने देखा कि आईपीएल के खेलों में किस तरह चीयर लीर्डस का इस्तेमाल हुआ और रंगीन पार्टियों ने अलग का तरह शमां बांधे रखा। बाजार इसी तरह से हमारे हर खेल उत्सव को अपनी जद में ले रहा है और हम इसे देखते रहने के लिए विवश हैं। यही कारण है कि आईपीएल खेलों से ज्यादा उत्साह रात को होने वाली नशीली पार्टियों में दिखता था। इससे क्रिकेट को क्या मिला किंतु व्यापारी मालामाल हो गए और सेक्स के कारोबार को उछाल मिला। एक उपेक्षित खेल हाकी के एक अधिकारी की रातें अगर इतनी रंगीन हैं तो क्रिकेट जैसे खेल के अधिकारियों और आईपीएल के अधिकारियों की शामों का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक माह तक चले आईपीएल खेलों के लिए ढाई सौ चीयर लीडर्स की मौजूदगी यूं ही नहीं थी। इसके साथ ही हजार से ज्यादा यौनकर्मी विभिन्न शहरों से खास मेहमानों के स्वागत के लिए मौजूद रहती थीं। यही हाल और नजारे जल्दी ही दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में दिखने वाले हैं। दिल्ली में अक्टूबर में होने जा रहे इन खेलों के लिए भी देह की मंडी सजने जा रही है। दुनिया भर से वेश्याएं यहां पहुंचेगीं और कई एस्कार्ट कंपनियां करोंड़ों का कारोबार करेंगीं। यूक्रेन,उजबेकिस्तान, अजरबेजान, चेचन्या, किर्गीस्तान, फिलीपींस जैसे देशों से तमाम यौनकर्मियों के आने की खबरें हैं। ऐसे हालात में हमारे पास इसे रोकने के कोई इंतजाम नहीं है। खेल प्रबंधकों, मीडिया प्रबंधकों और हमारी सरकारों की साझा युति से ये काम चलते आए हैं और चलते रहेंगें। मैदान से लेकर मैदान के बाहर खेलों का पूरा तंत्र ही उसे कलुषित करने की तैयारी है। जिसमें औरतें सबसे आसान शिकार हैं चाहे वे खिलाड़ी के रूप में या चीयर लीर्डस के रूप में या धन कमाने के लिए आई यौनकर्मी के रूप में। भारत जैसे देश में जहां ऐसे कामों को सामाजिक तौर पर स्वीकृति नहीं है वहां इसमें रोमांच और बढ़ जाता है। किंतु चिंता की बात यही है कि हमारे खेल प्रबंधकों को यह सोचना होगा कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो क्या हम मैदानों में अपने परिवार के बच्चों को खेलते हुए देखना चाहेंगें। इसलिए भारतीय महिला हाकी टीम के ही बहाने जो बातचीत शुरू हुई है उसे निष्कर्ष तक पहुंचाना और दोषियों को दंडित करना जरूरी है। वरना फिल्मों के कास्टिंग काउच की तरह हमारे खेलों के मैदान भी ऐसे ही कीचड़ से सने हुए दिखेंगें।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

कहां से आए हिंदू आतंकवादी ?


आखिर आरएसएस क्यों है निशाने पर
-संजय द्विवेदी
एक टीवी चैनल के खिलाफ आरएसएस के कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन को लेकर जैसी बातें की गयीं वह एक बहस का हिस्सा जरूर हैं पर इससे देश को क्या मिलेगा? बहस दरअसल इस बात पर होनी चाहिए कि खबरों को पुष्ट किए बिना ले उड़ने की जो वर्तमान टीवी पत्रकारिता है वह कितनी उचित है। दिल्ली की शिक्षिका उमा खुराना के प्रकरण से लेकर गुजरात की लड़की इशरत हो या आरूषि हत्याकांड के मामले हमारे सामने हैं जहां टीवी मीडिया ने अपनी गैरजिम्मेदार रिर्पोटिंग से माहौल को खराब किया। इस बार भी आरएसएस की भूमिका को संदेहास्पद बनाना उसी सोच का हिस्सा है जिसका शिकार वह आजादी के बाद से लगातार होता आया है। लेकिन इससे आरएसएस की न तो ताकत घटी न ही उसकी देशनिष्ठा पर विरोधियों ने भी शक किया। आज जैसी भूमिका इलेक्ट्रानिक मीडिया खबरों को लेकर निभा रहा उस पर सवालिया निशान उठते ही रहे हैं। खबरों को जल्दी देने की त्वरा ही इसके पीछे जिम्मेदार नहीं है उसके पीछे वह मानसिकता भी है जो आरएसएस के खिलाफ सालों से बनाई गयी है। जैसे कि हिंदू आतंकवाद शब्द का सृजन। आप कहना क्या चाहते हैं, क्या आतंक पंथों और धर्मों का होता है। आतंकवाद से लड़ने के मामले पर चयनात्मक रूख नहीं अपनाया जा सकता है। उसे जातियों, पंथों, धर्मों में बांटकर हम कमजोर ही करेंगें। आरएसएस पर हिंदू आतंकवाद की तोहमत लगाने के पहले क्या उसका पक्ष जानने की कोशिश हुयी ? एक संगठन के तौर पर हर तरह की आतंकी गतिविधि को संघ ने हमेशा खारिज किया और कहा कि उसका इस तरह की कामों में यकीन नहीं है। अब आप उसकी तुलना सिमी, अलकायदा या लश्कर तैयबा से करने लगें तो यह जायज नहीं है। एक चीज के खिलाफ दूसरी चीज है ही नहीं, तो उसे मीडिया क्यों खड़ा करना चाहता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा क्या है कि वह देश के तमाम बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्र में रहता है। ऐसा क्या कारण है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी उसे संदेह की नजर से देखता है। बिना यह जाने कि आखिर उसका मूल विचार क्या है। आरएसएस को न जानने वाले और जानकर भी उसकी गलत व्याख्या करनेवालों की तादाद इतनी है कि पूरा सच सामने नहीं आ पाता। आरएसएस के बारे में बहुत से भ्रम हैं कुछ तो विरोधियों द्वारा प्रचारित हैं तो कुछ ऐसे हैं जिनकी गलत व्याख्या कर विज्ञापित किया गया है। आरएसएस की काम करने की प्रक्रिया ऐसी है कि वह काम तो करता है प्रचार नहीं करता। इसलिए वह कही बातों का खंडन करने भी आगे नहीं आता। ऐसा संगठन जो प्रचार के काम में भरोसा नहीं करता और उसके कैडर को सतत प्रसिध्दि से दूर रहने का पाठ ही पढ़ाया गया है वह अपनी अच्छाइयों को बताने के आगे नहीं आता, न ही गलत छप रही बातों का खंडन करने का अभ्यासी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आरएसएस के बारे में जो कहा जाता है, वह कितना सच है।
जैसे कि आरएसएस के बारे में यह कहा जाता है कि वह मुस्लिम विरोधी है। जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच नामक संगठन बनाकर मुस्लिम समाज के बीच काम कर रहा है। संघ का मानना है कि यह देश तभी प्रगति कर सकता है जब उसके सभी नागरिक राष्ट्रजीवन में सामूहिक योगदान दें। संघ के एक अत्यंत वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार मुस्लिम समाज को जोड़ने के इस काम में लगे हैं। संघ का मानना है कि पूजा-पद्धति में बदलाव से राष्ट्र के प्रति किसी समाज की निष्ठा कम नहीं होती। हमारे पूर्वज एक हैं इसलिए हम सब एक हैं। संघ किसी पूजा उपासना पद्धति के खिलाफ नहीं है, वह तो राष्ट्रमंदिर का पुजारी है। उसकी सोच है कि देश सर्वोपरि है, उसके बाद सब हैं। ईसाई मिशनरियों से भी संघ का संघर्ष किसी द्वेष भावना के चलते नहीं है, धर्मपरिवर्तन के उनके प्रयासों के कारण है। संघ का मानना है प्रलोभन देकर कराया जा रहा धर्मांतरण उचित नहीं है। शायद इसीलिए दुनिया भर में मीडिया का उपयोग कर संघ की छवि बिगाड़ी गयी। वनवासी क्षेत्रों में लोभ के आधार पर कराया जा रहा धर्मांतरण संघर्ष की एक बड़ी वजह बना हुआ है।
आरएसएस के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों का विरोधी है। सच्चाई यह है कि आरएसएस के प्रातः स्मरण में महात्मा गांधी का जिक्र अन्य स्मरीय महापुरूषों के साथ किया गया है। स्वदेशी और स्वालंबन की गांधी की नीति का संघ कट्टर समर्थक है। वह मानता है कि गांधी के रास्ते से भटकाव के चलते ही उनके अनुयायियों ने देश का कबाड़ा किया। ध्यान दें केंद्र में वाजपेयी सरकार के समय भी आर्थिक नीतियों पर संघ के मतभेद सामने आए थे उसके पीछे स्वदेशी की प्रेरणा ही थी। कहने की जरूरत नहीं कि संघ पर गांधी जी हत्या का आरोप भी झूठा था जिसे अदालत ने भी माना। गांधी जी स्वयं अपने जीवन काल में संघ की शाखा में गए और वहां के अनुशासन, सामाजिक एकता और साथ मिलकर भोजन करने की भावना को सराहा। वे इस बात से खासे प्रभावित हुए कि यहां जांत-पांत का असर नहीं है।
संघ की राजनीति में बहुत सीमित रूचि है। राजनीति में अच्छे लोग जाएं और राष्ट्रवादी सोच के तहत काम करें संघ की इतनी ही मान्यता है। वह किसी दल के साथ अच्छी या बुरी सोच नहीं रखता बल्कि उस दल के आचरण के आधार पर अपनी सोच बनाता है। जैसे कि श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की भी कुछ प्रसंगों पर संघ ने सराहना की। सरदार वल्लभभाई पटेल को भी उसने आदर दिया। जबकि ये कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे। संघ की राजनीति दरअसल चुनावी और वोट बैंक की सोच से उपर की है, उसने सदैव देश और देश की जनता के हित को सिर माथे लिया है। हम देखें तो संघ की समस्त राष्ट्रीय चिंताएं आज सामने प्रकट रूप में खड़ी हैं। संघ ने नेहरू की काश्मीर नीति की आलोचना की तो आज उसका सच सामने है। हजारों कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी बनने के लिए विवश होना पड़ा। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बनाया तो आज पूर्वांचल और बंगाल ही नहीं पूरे देश में हमारी सुरक्षा को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया है। जिसका सबसे ज्यादा असर आज असम में देखा जा रहा है। संघ ने अपनी प्रतिनिधि सभा की बैठकों में 1980 में सबसे पहले यह मुद्दा उठाया।1982,1984,1991 की संघ की प्रतिनिधि सभा के बैठकों के प्रस्ताव देखें तो हमारी आंखें खुल जाएंगीं। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर संघ की चिंताएं ही आज भारतीय राज्य की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। 1990 में संघ की प्रतिनिधि सभा ने आतंकवादी उभार पर अपनी बैठक में प्रस्ताव पास किया। आज 2010 में वह हमारी सबसे बड़ी चिंता बन गया है। इसी तरह अखिलभारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में 1990 में ही हैदराबाद में आरएसएस ने आतंकवाद पर सरकार की ढुलमुल नीति को निशाने पर लेते हुए प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में वह आतंकवाद और नक्सलवाद के दोनों मोर्चों पर विचार करते हुए बात कही गयी थी। इस तरह देखें तो आरएसएस की चिंता में देश सबसे पहले है और देश की लापरवाह राजनीति को जगाने और झकझोरने का काम वह अपने तरीके से करता रहता है।
आरएसएस को उसके आलोचक कुछ भी कहें पर उसका सबसे बड़ा जोर सामाजिक और सामुदायिक एकता पर है। आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने और वृहत्तर हिंदू समाज की एकता और शक्ति को जगाने के उसके प्रयास किसी से छिपे नहीं हैं। वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठन संघ की प्रेरणा से ही सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। शायद इसीलिए ईसाई मिशनरियों के साथ उसका संधर्ष देखने को मिलता है। आरएसएस के कार्यकर्ताओं के लिए सेवा का क्षेत्र बेहद महत्व का है। अपने स्कूल, कालेजों, अस्पतालों के माध्यमों से कम साधनों के बावजूद उन्होंने जनमानस के बीच अपनी पैठ बनाई है। देश पर पड़ी आपदाओं के समय हमेशा संघ के स्वयंसेवक सेवा के लिए तत्पर रहे। 1950 में संघ के तत्कालीन संघ चालक श्रीगुरू जी ने पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की मदद के लिए आह्वान किया। 1965 में पाक आक्रमण के पीड़ितों की सहायता का काम किया,1967 में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए संघ आगे आया, 1978 के नवंबर माह में दक्षिण के प्रांतों में आए चक्रवाती तूफान में संघ आगे आया। इसी तरह 1983 में बाढ़पीडितों की सहायता, 1991 में कश्मीरी विस्थापितों की मदद के अलावा तमाम ऐसे उदाहरण हैं जहां पीड़ित मानवता की मदद के लिए संघ खड़ा दिखा। इस तरह आरएसएस का चेहरा वही नहीं है जो दिखाया जाता है। हर संगठन समय के साथ अपने को परिष्कृत करता है और नए विचारों को शामिल करता है। ऐसे समय में जब संघ मुस्लिम समाज से एक संवाद विकसित करता चुका है और संवाद के नए अवसरों की तलाश कर रहा है। उसे आतंकवादी गतिविधियों का पोषक बताना न्याय नहीं है। सभी संगठनों में कुछ भटके हुए लोग होते हैं संभव है कि कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें आरएसएस के काम करने में आस्था न हो और वे अलग रास्ता लेकर अतिवादी राह पकड़ लेते हों। किंतु इसके लिए संघ को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। वह हर तरह की हिंसा के खिलाफ है और ऐसे में सिर्फ सस्ती लोकप्रियता या मीडिया के द्वारा टीआरपी के लिए उसे आरोपित करना ठीक नहीं है।
संकट यह है कि आरएसएस का मार्ग ऐसा है कि आज की राजनीतिक शैली और राजनीतिक दलों को वह नहीं सुहाता। वह देशप्रेम, व्यक्ति निर्माण के फलसफे पर काम करता है। वह सार्वजनिक जीवन में शुचिता का पक्षधर है। वह देश में सभी नागरिकों के समान अधिकारों और कर्तव्यों की बात करता है। उसे पीड़ा है अपने ही देश में कोई शरणार्थी क्यों है। आज की राजनीति चुभते हुए सवालों से मुंह चुराती है। संघ उससे टकराता है और उनके समाधान के रास्ते भी बताता है। संकट यही है कि आज की राजनीति के पास न तो देश की चुनौतियों से लड़ने का माद्दा है न ही समाधान निकालने की इच्छाशक्ति। आरएसएस से इसलिए इस देश की राजनीति डरती है। वे लोग डरते हैं जिनकी निष्ठाएं और सोच कहीं और गिरवी पड़ी हैं। संघ अपने साधनों से, स्वदेशी संकल्पों से, स्वदेशी सपनों से खड़ा होता स्वालंबी देश चाहता है,जबकि हमारी राजनीति विदेशी पैसे और विदेशी राष्ट्रों की गुलामी में ही अपनी मुक्ति खोज रही है। जाहिर तौर पर ऐसे मिजाज से आरएसएस को समझा नहीं जा सकता। आरएसएस को समझने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की जरूरत है। क्या वो हमारे पास है ?

सोमवार, 19 जुलाई 2010

जगदीश उपासने को पितृशोक

रायपुर, 19 जुलाई।
इंडिया टुडे के कार्यकारी सम्पादक जगदीश उपासने एवं भारतीय जनता पार्टी छत्तीसगढ़ के प्रदेश उपाध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने के पिता श्री दत्तात्रय उपासने (वर्ष 87) का सोमवार को निधन हो गया। वे प्रख्यात समाज सेवी थे, स्व. उपासने की धर्मपत्नी श्रीमती रजनीताई उपासने रायपुर शहर से विधायक भी रही हैं। उपासने परिवार का राजनीति एवं समाज सेवा में काफी योगदान रहा है। परिवार के मुखिया के नाते स्व. उपासने ने आपात काल का वह दौर भी झेला था, जब उनके परिवार के अधिकतर सदस्य जेल में डाल दिए गए थे। भाजपा परिवार में भी उनका अभिभावक जैसा सम्मान था। यही कारण है कि जब स्व. उपासने ने स्थानीय अस्पताल में अंतिम सांस ली उस समय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी वहां उपस्थित थे। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं। स्व. उपासने का अंतिम संस्कार शाम 4 बजे मारवाड़ी श्मशान घाट, रायपुर में किया।

रविवार, 18 जुलाई 2010

कुछ करिए, कुछ करिए !!


नक्सलवाद पर कार्रवाई पर किंतु परंतु न कीजिए
-संजय द्विवेदी
देर से ही सही केंद्र सरकार और हमारी राज्य सरकारों ने नक्सलवाद के खतरे को उसके सही संदर्भ में पहचान लिया है। शायद इसीलिए अब इस मसले पर एकीकृत कमान की बात की जा रही है। पिछले एक दशक नक्सली हिंसा का विस्तार रोक नहीं पाए और अब जब यह आतंकी वाद बेकाबू हो गया है तब हमारी सरकारों को इसके खतरे का अंदाजा हुआ है। इंतजार और धैर्य के मामले में वास्तव में हमारी सरकारें प्रेरणा का विषय हैं। जब तक पानी सर से ऊपर न हो जाए उन पर जूं ही नहीं रेंगती। अब नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की मौजूदगी में यह फैसला किया गया है कि माओवादियों की हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में एकीकृत कमान होगी। जो इस चुनौती से निपटने की रणनीति पर काम करेंगें। इस के साथ ही केंद्र इन राज्यों को नक्सली विरोधी अभियान के लिए हेलीकाप्टर तथा अन्य साधन मुहैया कराएगा।
एकीकृत कमान बनाए जाने के फैसले से चारो राज्य सहमत हैं और इसकी अध्यक्षता राज्य के मुख्यसचिव करेंगें। यह कमान पुलिस, अर्द्धसैनिक बल तथा खुफिया एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल बैठाएगी। इस एकीकृत कमान में सेना का एक रिटायर्ड मेजर जनरल भी शामिल होगा। जाहिर तौर पर यह फैसला नक्सलवाद के खिलाफ जंग में एक बड़ी सफलता की शुरूआत कर सकता है। क्योंकि यह समस्या किसी एक राज्य की नहीं है बल्कि पूरे देश की है सो इसमें सबका सहयोग और समन्वय आवश्यक है। अलग-अलग विचार रखकर इस लड़ाई को जीत पाना कठिन है। इसके लिए ठोस रणनीति बनाकर इस लड़ाई को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जैसे नेता प्रारंभ से ही एक समन्वित रणनीति बनाकर काम करने की बात करते रहे हैं किंतु केंद्र में बैठे कुछ नेता आज भी इसे कानून-व्यवस्था की सामान्य समस्या मानकर चल रहे हैं। जबकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा है जिसमें हमारे अपने लोगों को मोहरा बनाकर लड़ाई लड़ी जा रही है। यह दुखद है कि देश के राजनीतिक जीवन में सक्रिय अनेक राजनेता और अधिकारी व बुद्धिजीवी आज भी नक्सली आंदोलन के साथ सहानुभूति का व्यवहार रखते हैं, इससे जाहिर तौर पर चिंता बढ़ जाती है और नक्सलवाद के खिलाफ संर्धष के मार्ग में एक भ्रम का निर्माण होता है।
यह कैसा ‘वाद’ हैः
सवाल यह उठता है कि क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। यह एक ऐसी कायराना लड़ाई है जिसमें नक्सलवादी नरभक्षियों में बदल गए हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे आम लोग अगर आपके निशाने पर हैं तो आप कैसी जंग लड़ रहे हैं। आम आदमी का खून बहाकर वे कौन सा राज लाना चाहते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
क्या कह रही हो अरूंधतीः
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं। नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय का बयान दरअसल आंखें खोलने वाला है। अब तो इस सच से पर्दा हट जाना चाहिए कि नक्सलवाद किस तरह से एक देशतोड़क आंदोलन है और इसे किस तरह से समर्थन मिल रहा है। नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं का समर्थन कर अरूंधती राय ने अपने समविचारी मानवाधिकारवादियों, कथित लेखकों और आखिरी आदमी के लिए लड़ने का दम भरने वाले संगठनों की पोल खोल दी है। उन्होंने अपना पक्ष जाहिर कर देश का बहुत भला किया है। उनके इस साहस की सराहना होनी चाहिए कि खूनी टोली का साथ तमाम किंतु-परंतु के साथ नहीं दे रही हैं और नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज नहीं ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है। ऐसे में अरूंधती के द्वारा अपना पक्ष तय कर लेना साहसिक ही है। वे दरअसल उन ढोंगी बुद्धिजीवियों से बेहतर है जो महात्मा गांधी का नाम लेते हुए भी नक्सल हिंसा को जायज ठहराते हैं। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। अरूंधती इस मायने में उन ढोंगियों से बेहतर हैं जो माओवाद, लेनिनवाद, समाजवाद, गांधीवाद की खाल ओढ़कर नक्सलियों को महिमामंडित कर रहे हैं।
तय करें आप किसके साथः
खुद को संवेदनशील और मानवता के लिए लड़ने वाले ये कथित बुद्धिजीवी कैसे किसी परिवार को उजड़ता हुआ देख पा रहे हैं। वे नक्सलियों के कथित जनयुद्ध में साथ रहें किंतु उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा तो दें। हत्यारों के गिरोह में परिणित हो चुका नक्सलवाद अब जो रूप अख्तियार कर चुका है उससे किसी सदाशयता की आस पालना बेमानी ही है। सरकारों के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हिंसा के आधार पर 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले लोगों को उनकी भाषा में ही जवाब दिया जाना जरूरी है। सो इस मामले पर किसी किंतु पंरतु के बगैर भारत की आम जनता को भयमुक्त वातावरण में जीने की स्थितियां प्रदान करनी होंगी। हर नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों की हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य की बहादुरी के प्रमाण अभी तक नहीं देखे गए। जिस तरह के हालात है उसमें हमारे और राज्य के सामने विकल्प कहां हैं। इन हालात में या तो आप नक्सलवाद के साथ खड़े हों या उसके खिलाफ। यह बात बहुत तेजी से उठाने की जरूरत है कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें नदारद हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
हमारा भ्रष्ट तंत्र कैसे जीतेगा जंगः
सवाल यह है कि क्या कोई भ्रष्ट तंत्र नक्सलवादियों की संगठित और वैचारिक शक्ति का मुकाबला कर सकता है। विदेशों से हथियार और पैसे अगर जंगल के भीतर तक पहुंच रहे हैं, नक्सली हमारे ही लोगों से करोड़ों की लेवी वसूलकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो हम इतने विवश क्यों हैं। क्या कारण है कि हमारे अपने लोग ही नक्सलवाद और माओवाद की विदेशी विचारधारा और विदेशी पैसों के बल पर अपना अभियान चला रहे हैं और हम उन्हें खामोशी से देख रहे हैं। महानगरों में बैठे तमाम विचारक एवं जनसंगठन किस मुंह से नक्सली हिंसा को खारिज कर रहे हैं जबकि वे स्वयं इस आग को फैलाने के जिम्मेदार हैं। शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा। ऐसे शब्दजालों और भ्रमजालों में फंसी हमारी सरकारें कैसे कोई निर्णायक कदम उठा पाएंगीं। जो लोग नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वो सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी सरकारें नक्सलवाद का समाधान चाहती हैं? अगर चाहती हैं तो उन्हें किसने रोक रखा है? क्या इस सवाल का कोई जवाब भारतीय राज्य के पास है,,क्योंकि यह सवाल उन तमाम निर्दोष भारतीयों के परिवारों की ओर से भी है जो लाल आतंक की भेंट चढ़ गए हैं।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

आल इज नाट वेल


भारतधृणा से ही चलती है पाकिस्तानी राजनीति
आइए एक और तारीख मुकरर्र करें अगली बातचीत के लिए
-संजय द्विवेदी

कुछ चीजें कभी नहीं सुधरतीं, पाकिस्तान और उसकी राजनीति उनमें से एक है। वे फिर लौटकर वहीं आ जाते हैं जहां से उन्होंने शुरूआत की होती है। जाहिर तौर ऐसे पड़ोसी के साथ भारत का धैर्य ही निभा सकता है। बावजूद इसके यह बहुत विश्वास से कहा जा सकता है कि अगर पाकिस्तान जैसे पड़ोसी हों तो आपको दुश्मनों की जरूरत नहीं है। 1947 के बंटवारे के बाद ही पाकिस्तान एक ऐसी अंतहीन आग में जल रहा है जिसके कारण समझना मुश्किल है। भारतधृणा वहां की राजनीति का एक ऐसा तत्व बन गया है जिसके बिना वहां टिकना कठिन है।
अपनी सत्ता को बनाए और बचाए रखने के लिए पाक के राजनेता इसलिए भारत के खिलाफ राग अलापने से बाज नहीं आते। भारत-पाक के बीच विदेश मंत्री स्तर की वार्ता सद्भाव के वातावरण में हुयी, दो के बजाए वह छः घंटे चली। उसके बाद हमारे विदेश मंत्री दिल्ली वापस पहुंचे ही नहीं थे कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री के कुबोल शुरू हो गए। इससे पता लगता है कि पाकिस्तान में एक पक्ष ऐसा है जो भारत-पाक के सहज होते रिश्तों को देख नहीं सकता क्योंकि भारतविरोध पर ही उसकी राजनीति चलती है। गुरूवार को विदेशमंत्री स्तर की वार्ता में भी माहौल को गरमाने में पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कोई कसर नहीं छोड़ी। गृहसचिव पिल्लै के बयान को मुद्दा बनाकर वे जिस तरह संयुक्त प्रेस कांफ्रेस में बिफरे वह नादानी ही थी। कौन नहीं जानता कि भारत विरोधी अभियानों में आईएसआई की क्या भूमिका है। अगर गृहसचिव पिल्लै ने आईएसआई का नाम लिया तो इसके लिए उनके पास प्रमाण हैं।जाहिर तौर पर यह पाकिस्तान की बौखलाहट ही कही जाएगी। बावजूद इसके भारत के संयम का पाक हमेशा लाभ लेता आया है। आतंकवाद का गढ़ बन चुका पाक बुरे हालात से गुजर रहा है। उसके अंदरूनी हालात भयावह हैं। भारतीय विदेश मंत्री ने इस प्रेस कांफ्रेस में अपना धैर्य नहीं खोया, संयम बनाए रखा, नहीं तो वार्ता वहीं खत्म हो जाती। खिसियाए पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश मंत्री कृष्णा के विदा होते ही नापाक बोल बोलने शुरू कर दिए। पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने जिस तरह के हल्के बयान दिए हैं, वह कहीं से भी मर्यादा के अनूकूल नहीं कहे जा सकते। भारतीय गृहसचिव की तुलना आतंकी हाफिज सईद जैसे व्यक्ति से करना एक ऐसा बचकानापन है जिसे कोई भी गंभीर देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। पाकिस्तान जाने कैसे इस प्रकार के नेतृत्व के हाथ में विदेश मंत्रालय जैसे गंभीर विभाग की कमान देकर बैठा है। पाक विदेश मंत्री के उलजूलूल बयान बताते हैं कि पाकिस्तान, अमरीकी दबाव में वार्ता की मेज पर आया है जबकि उसकी बातचीत को सफल बनाने में कोई रूचि नहीं दिखती। इससे पाकिस्तानी राजनीति और कूटनीति दोनों की अपरिपक्वता का पता चलता है। इससे यह भी पता चलता है पाकिस्तान दरअसल भारत से सहजतापूर्ण संबंधों के पक्ष में नहीं है। उसे किसी भी तरह भारत विरोध और कश्मीर जैसे मसलों को उठाकर अपने आवाम के बीच अपनी नाक उंची रखनी है ताकि उसके खुद के देश में हो रही बर्बादी से ध्यान हटाया जा सके।
पाकिस्तान में करीब 32 आतंकवादी गुट सक्रिय हैं जिनमें लगभग सभी आईएसआई से जुड़े हैं। अमरीकी वित्तीय मदद का एक बड़ा हिस्सा आतंकी संगठनों तक पहुंच जाता है। ऐसे कठिन देश में सद्बाव की बात करना मुश्किल ही है। बावजूद इसके भारत के पास संवाद के अलावा चारा क्या है। संभव है कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों से पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अपनी मौखिक जिम्मेदारी प्रकट कर रहा हो किंतु लगता नहीं कि वह वहां के हालात में कोई गंभीर पहल कर पाने की स्थिति में है। भारत इस पूरे संवाद से आशान्वित नजर आ रहा था क्योंकि उसकी नीति पड़ोसियों से बेहतर रिश्तों की रही है। पाकिस्तान से बार-बार छले जाने के बावजूद भारत की इस नीति में बदलाव नहीं हुआ है। जाहिर है भारत के प्रयास अपने पड़ोसियों के साथ सामान्य संबंध बनाने के हैं। लेकिन दुखद है कि पाकिस्तान ने भारत की इस सद्भावना हमेशा मजाक बनाया या धोखा दिया। आतंकवाद से ग्रस्त होने के बावजूद वह भारत के पक्ष को समझना नहीं चाहता जबकि आज भारत उसकी जमीन पर बन रहे षडयंत्रों का सबसे बड़ा शिकार है। पाकिस्तान तल्ख जुबां से दोस्ती की बात करता है जैसे दोस्ती अकेली भारत की गरज हो। हमेशा की तरह कश्मीर का राग अलाप कर वह क्या साबित करना चाहता है। कश्मीर के हालात की उसे चिंता है तो उसे यह भी सोचना चाहिए कि आज कश्मीर जिस अंतहीन पीड़ा को भोग रहा है उसमें सबसे बड़ा योगदान पाकिस्तान का ही है। कश्मीर के हालात को बिगाड़ने में पाकिस्तानी सरकार और आईएसआई की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। अब जबकि मुंबई हमलों में भी आईएसआई का नाम शामिल नजर आ रहा है तो पाकिस्तानी राजनीति की चूलें हिल गयी हैं और बौखलाए विदेश मंत्री, भारतीय गृहसचिव की तुलना एक आतंकी से कर रहे हैं। आजादी के बाद से ही कश्मीर के भाग्य में चैन नहीं है, जैसे-तैसे भारत विलय के बाद से आज तक वह लगातार खूनी संघर्षों का अखाड़ा बना हुआ है। सही अर्थो में भारत के अप्राकृतिक विभाजन का जितना कष्ट कश्मीर ने भोगा है, वह अन्य किसी राज्य के हिस्से नहीं आया। दिल्ली के राजनेताओं की नासमझियों ने हालात और बिगाड़े, आज हालात ये हैं कि कश्मीर के प्रमुख हिस्सों लद्दाख, जम्मू और घाटी तीनों में आतंकवाद की लहरें फैल चुकी हैं। इनमें सबसे बुरा हाल कश्मीर घाटी का है, जहां सिर्फ सेना को छोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोलने वाला कोई नहीं है। आखिर इन हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? वे कौन से हालात हैं, वे कौन लोग हैं जो पाकिस्तान षड्यंत्रों का हस्तक बनकर इस्लामी आतंकवाद की लहर की सवारी कर रहे हैं। पाकिस्तान इस पूरे इलाके की तबाही का जिम्मेदार है और वही आज कश्मीरी नागरिकों की चिंता का नाटक कर विश्वमंच पर भारत की छवि को खराब करना चाहता है। जबकि उसे अपने खुद के देश के अंदर झांकना चाहिए कि वहां के अंदरूनी हालात क्या हैं।उसे अपने देश की तबाही से ज्यादा चिंता कश्मीर की है। शायद इसीलिए भारत जब आतंकवाद पर चर्चा करना चाहता है तो वह बगलें झांकने लगता है या फिर कश्मीर का सवाल उठा देता है। दोनों देशों के बीच बातचीत का एकमात्र बिंदु है वह है आतंकवाद। किंतु पाक इस सवाल पर गंभीर नहीं है। वह दाउद और हाफिज सईद जैसे भारत के दुश्मनों को शरण देगा और अमन की दुआ भी करेगा। इस ढोंग से क्या हासिल है। पाकिस्तान के छः दशकों का चरित्र धोखा देने का रहा है। यह तो भारत सरकार को ही तय करना है कि उससे बात करे या न करे किंतु संवाद से कुछ हासिल होगा यह सोचना बेमानी है। एक असफल राष्ट्र अपने पड़ोसी की समृद्धि और प्रगति को सह नहीं पाते। पाकिस्तान भी जलन, धृणा और ईष्र्या का शिकार है। वह भारत के साथ संवाद तो करेगा पर अमल अपनी उन्हीं नीतियों पर करेगा जिससे भारत कमजोर हो। दिखावे की बातचीत का उसका खेल जानकर भी हम समझने को तैयार नहीं हैं और धोखा खाना हमारी फितरत बन गयी है, तो आइए पाकिस्तान से एक और बातचीत के लिए दिन और तारीख मुकर्रर करते हैं।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

जब वीआईपी आते हैं


अमन के कत्ल का इल्जाम व्यवस्था के सिर पर
-संजय द्विवेदी
क्या हिंदुस्तान में वीआईपी मौत का सबब बन गए हैं। चंढीगढ़ से लेकर कानपुर तक फैली ये कहानियां बताती हैं कि किसी वीआईपी का शहर में आना आम आदमी के लिए कितना भारी पड़ता है। एक खास आदमी की सुरक्षा किस तरह आम आदमी की मौत बन जाती है इसका ताजा किस्सा कानपुर से आया है जहां पिछले दिनों प्रधानमंत्री के दौरे के नाते एक घायल बच्चा समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गयी। अब उसकी मां के पास अपने इकलौते बेटे को खोने के बाद क्या बचा है। इसी तरह गत वर्ष नवंबर माह में प्रधानमंत्री का चंड़ीगढ़ दौरा एक मरीज का मौत का कारण बन गया था। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति को पुलिस वाले इसलिए नहीं जाने दिया क्योंकि मनमोहन सिंह का काफिला उधर से गुजरने वाला था। जब पीजीआई के पास यह मरीज पहुंचा तो प्रधानमंत्री के काफिले के गुजरने को लेकर आम ट्रैफिक के लिए रास्ता बंद कर दिया गया। सुमित गुर्दे का मरीज होने की वजह से हर महीने पीजीआई खून बदलवाने के लिए जाया करता था। पर जब उसके परिजन उसे लेकर आये तो वी. आई.पी. काफिले के गुजरने को लेकर चंडीगढ़ पीजीआई के पास इस मरीज की गाड़ी रोक दी गयी। परिजनों ने वहां खड़े पुलिस वालों से स्थिति से अवगत कराया लेकिन पुलिस वालों ने एक न सुनी और कहा कि जबतक प्रधानमंत्री का काफिला नहीं गुजर जाता तबतक किसी कीमत से नहीं जाने दिया जाएगा।
ये दो हादसे हमारे सुरक्षा तंत्र की लाचारगी और संवेदनहीनता दोनों का बयान करते हैं। जाहिर तौर पर हमारे देश में जिस तरह की दुखद घटनाएं हुई हैं और उसमें देश के दो प्रधानमंत्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी उसके बाद वीआईपी सुरक्षा का दबाव बढ़ना ही था। आज भी वीआईपी तमाम कारणों से अपने आपको असुरक्षित ही पाते हैं। सुरक्षा तंत्र के सामने वीआईपी दौरा एक बड़ा तनाव होता है। वे इसे लेकर खासे परेशान रहते हैं कि किसी तरह से वीआईपी जल्दी-जल्दी शहर छोड़कर चला जाए। प्रधानमंत्री की सुरक्षा पद विशेष के नाते संकट का एक बड़ा कारण बन गयी है। एसपीजी कवर प्राप्त जो राजनेता हैं उनकी सुरक्षा के इंतजाम इतने कड़े हैं कि पूरा शहर, उनके शहर में होने का दंड भोगता है। आधे-अधूरे और अचानक के दौरे तो और तबाह करते हैं। लेकिन घटनाओं के बाद सोचने का विषय यह है कि क्या वीआईपी की जान के सामने एक आम शहरी की जान की कोई कीमत नहीं है। ये हादसे सवाल कर रहे हैं कि आखिर इस देश में जनतंत्र के मायने क्या हैं कि एक लोकसेवक की रक्षा की कीमत पर आम लोगों की जान पर बन आए। ये तो कुछ ऐसे हादसे हैं जो प्रकाश में आ गए हैं, लेकिन तमाम ऐसे दर्द है जो मीडिया और लोगों की नजरों से बच जाते हैं। ऐसे समय में हमें सोचना होगा कि हम अपने सुरक्षा तंत्र को इतना संवेदनशील तो बनाएं ही कि वह आम आदमी की जान से न खेल सके। वीआईपी जिन शहरों में जाते हैं उनके लिए इस तरह के इंतजाम हों कि उन्हें खास रास्तों से ही गुजारा जाए और आम शहरी तंग न हो। इसके साथ ही वैकल्पिक मार्गों की व्यव्स्था भी की जाए जिन पर उस समय नाहक पुलिस या सुरक्षा कर्मियों का आतंक न हो। सामान्य पूछताछ और गाड़ियों की पड़ताल एक विषय है किंतु किसी अस्पताल जा रहे मरीज को रोका जाना कहां का न्याय है। वैसे भी हमारे देश के राजनेता और वीआईपी जनता के नजरों में अपनी कदर खो चुके हैं। राजनेताओं को लेकर हमारे देश की जनता में एक खास तरह का अवसाद विकसित हुआ है। लोग अपने नेताओं से कोई उम्मीद नहीं रखते और जनतंत्र को एक मजाक मानने लगे हैं। क्योंकि हमारे जनतंत्र ने बहुत जल्दी ही राजतंत्र की सारी खूबियों को आत्मसात कर लिया है। इससे राजनेताओं की जनता से बहुत दूरी भी बन चुकी है। इसे चाहकर भी अब हमारे राजनेता पाट नहीं सकते। वे उन्हीं बने-बनाए मानकों में कैद हो जाते हैं जैसा व्यवस्था चाहती है। वीआईपी सुरक्षा का विषय निश्चय ही देश के वर्तमान हालात में बहुत बड़ा है। कब कौन सी घटना हो जाए कहा नहीं जा सकता। देश की सरकारें जिस तरह आतंकवाद और अतिवादी ताकतों के सामने घुटनाटेक आचरण का परिचय दे रही हैं उससे किसी की जान तभी तक सुरक्षित है जब तक आतंकी चाहें। आज हालात यह हैं कि हमारी ट्रेनों को नक्सली सात घंटे तक रोक कर रख सकते हैं और हमारा राज्य इसे देखकर खामोश है। पिछले पांच सालों में नक्सली 11 हजार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। मणिपुर महीनों अराजकता का शिकार बना रहता है और वहां नाकेबंदी चलती रहती है। कश्मीर के तमाम शहरों में हिंसक प्रदर्शन जारी हैं। कहने का मतलब यह है कि भारतीय राज्य को सुरक्षा के प्रसंगों पर जहां राज्य की दंड शक्ति का परिचय देना चाहिए वहां वह बेचारा साबित हो रहा है। उसके हाथ अतिवादियों पर कार्रवाई करते हुए कांपते हैं। किंतु आम जनता पर अपनी बहादुरी दिखाने से वह बाज नहीं आता। क्या सिर्फ इसलिए कि आम शहरी कानून को मानता और उस पर भरोसा करता है। इसलिए उसके जान की कोई कीमत नहीं है। एक वीआईपी के किसी शहर में आने से शहर को राहत मिलनी चाहिए या सजा यह एक बड़ा सवाल है। इसी तरह वीआईपी सुरक्षा के दुरूपयोग के भी किस्से आम हैं। आज हर नेता अपने को वीआईपी बनाने के लिए आमादा है। सबको अपनी सुरक्षा के ग्रेड बढ़वाने हैं क्योंकि इससे रूतबा बढ़ता है और यह एक स्टेट्स सिंबल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हमें देखना होगा कि इस तरह की सुरक्षा हमारे जनतंत्र पर कितनी भारी पड़ रही है। ऐसे सुरक्षा घेरों में वीआईपी को आते-जाते समय जनता क्या प्रतिक्रिया करती है कभी उसे भी सुनिए तो पता चलेगा कि लोग इस पूरे तंत्र को किस नजर से देखते हैं। जनता के बीच काम करने वाला आम नेता जैसे ही पदधारी होता है उसे वीआईपी बनने का मनोरोग लग जाता है।यह एक ऐसी बीमारी है जो हमारे जनतंत्र को कमजोर और अविश्वासी बना रही है। किंतु चिंता का विषय ये छोटी बीमारियां नहीं हैं। हमें देखना होगा कि प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति की सुरक्षा के नाते यदि आम जनता आहत हो रही है तो उसका संदेश क्या जाता है। जाहिर तौर पर हमें अपने नेताओं के पद की गरिमा के अनुकूल ही सुरक्षा के इंतजाम करने चाहिए ताकि वे महफूज रहें और देश के प्रति अपना श्रेष्ठ योगदान सुनिश्चित कर सकें। किंतु हमें यह भी ध्यान देना होगा कि एक भी आम हिंदुस्तानी अगर उनकी सुरक्षा के चलते अपनी जान गंवा बैठता है तो यह अच्छी बात नहीं हैं। कानपुर की मां ऊषा शर्मा ने की पीड़ा को समझने की जरूरत है जिसने अपना इकलौता बेटा खो दिया है। जरूरत है हमारे तंत्र को मानवीय बनाने की ताकि फिर कोई मां अपना बेटा न खो दे। आठ साल के अमन की मौत ने हमारे सामने कई सवाल खड़े किए हैं और वे सवाल तब तक हल नहीं होंगें जबतक हमारी व्यवस्था में मानवीय पहलू शामिल नहीं किए जाते। जाहिर तौर पर हमारी सुरक्षा एजेंसियों को भी यह सबक सीखने की जरूरत है कि कई बार मानवीय दृष्टि से भी कई फैसले किए जाते हैं और अगर वह दृष्टि हमारे सुरक्षा अमले के पास होती तो आज अमन के कत्ल का इल्जाम इस तंत्र के सिर पर न होता।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

बाढ़ से कराहती मानवता


प्रलंयकारी बाढ़ के कारणों के स्थाई समाधान खोजने की जरूरत

-संजय द्विवेदी
कोई संकट अगर हर साल आता है तो क्या उसके स्थाई समाधान नहीं हो सकते। अगर हो सकते हैं तो हमें किसने रोक रखा है। उप्र, बिहार से लेकर देश के तमाम इलाके कभी बाढ़ और कभी सूखे की चपेट में रहते हैं। आजादी के छः दशक से हम इन विनाशलीलाओं को देख रहे हैं और इस बार हरियाणा- पंजाब के जो हालात हैं वे सोचने के लिए विवश करते हैं।हरियाणा इस बार प्रलयंकारी बाढ़ का शिकार बना हुआ है। दर्जनो गांव जलमग्न हुए और फसलों को खासा नुकसान पहुंचा है, पानी बस्तियों में घुसने जनजीवन भी बदहाल हुआ।ऐसे में बाढ़ की हर साल आने वाली तबाही किस कदर किसानों की कमर तोड़ देती है यह किसी से छिपा नहीं है । ऐसे में इस त्रासदी से लड़कर क्षेत्र के लोग कितने दिनों में कमर सीधी कर पाएंगे, कहा नहीं जा सकता।

उप्र, बिहार, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्य हर साल बाढ़ या सूखे का शिकार होते हैं। अब सवाल यह उठता है कि हर साल आने वाली बाढ़ से निपटने के लिए सरकारी प्रयास क्या इतने अगंभीर और वायवीय थे कि हालात इतने बदतर हो जाते हैं । आजादी के बाद बांधों ओर नहरों का तंत्र खडा करके हमने जल प्रबंधन की जो तैयारियां की क्या वे बेमानी हैं ? बाढ़ों का सालाना सिलसिला और उसके बाद चलने वाले राहत के कामों का सिलसिला आखिर कब तक जारी रहेगा ? इन सबके बीच जन-धन हानि को छोड़ें तो भी प्रशासनिक स्तर पर कितना बड़ा भ्रष्टाचार फलता-फूलता है यह किसी से छिपा नहीं हैं । चेतावनियों को अनदेखा करने, समस्याओं को टालने, उनके तात्कालिक समाधान खोजने की जो अद्भुत प्रशासनिक शैली हमने 60 सालों से विकसित की है निश्चय ही उससे ऐसी स्थाई समस्याओं का निदान संभव नहीं है । इतना समय और संसाधन खर्च करने के बावजूद हम अपने गांवों, खेतों, लोगों और मवेशियों को कब तक प्राकृतिक विनाशलीलाओं का हिस्सा बनते जाने देंगे ? निश्चय ही नदियों का काम उफनना है, वे उफनेंगी पर उफन कर वे हजारों गांव बहा ले जाएं तो हमारे समूचे तंत्र का क्या मतलब ? आजादी के बाद इन विनाशलीलाओं पर नियंत्रण के लिए हमने बड़े बांधों, जल परियोजनाओं की शुरुआत की नहरें बनाकर गांवों तक पानी पहुंचाने के इंतजाम किए। इस जल प्रबंधन के पीछे तबाही से बचने और गांवों को खुशहाल बनाने की नीयत संयुक्त थी। हमारा सपना था कि ये बड़े-बड़े बांध बाढ़ की त्रासदी को झेल जाएंगे और लोगों पर उसका असर नहीं पड़ेगा, लेकिन विकास के प्रतीक ये बांध बहुत कुछ नहीं कर पाए। नदियां नए रास्ते तलाशती गई। बाढ़ कम होने के बजाए ज्यादा आने लगी। इन बाढ़ों को नजीर मानें तो यह भीषणतम तबाही पैदा करतीं हैं। बिहार में पिछले सालों की बाढ़ ऐसी मानवीय त्रासदी थी जिसके उदाहरण खोजने पर भी न मिलेंगें।ऐसे में विकास का चक्र आगे जाने के बजाए पीछे खिसकता दिखता है। बाढ़ रोकने में बड़े बांघ, तटबंध विफल हो रहे हैं यह साफ दिखता है। फिर संभव है देश के रक्त में घुस आए भ्रष्टाचार के अंश भी अपना खेल दिखाते हों।
हम बाधों और नहरों के प्रति उचित प्रबंधन का दिखावा तो करते हैं, पर उसे कार्यरूप में न बदल पाते हों। इस सबके बावजूद यह बात तो साफ तौर पर कही जा सकती है कि जलप्रबंधन में हमारी कुशलता नाकाफी साबित हुई है। ग्रामीण विकास के नाम पर हम आज भी सड़कें बनाने की बात करते हैं। सिंचाई परियोजनाओं को शुरू करने और उन्हें व्यवस्थित करने की नहीं।ऐसे समय में बाढ़ के नाते हर साल लोगों की जिंदगी में तबाही लाने, अरबों रुपए के राहत के काम करके हम फिर अगली बाढ़ के इंतजार में चुप बैठ जाते हैं। इसी काहिल जल प्रबंधन और अकुलशलता ने हिंदी भाषी राज्यों. को आज के हालात में पहुंचाया है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री इन्हीं आपदाओं में तेजी से बहती है। जनता भले बेहाल हो, राहत के नाम पर नौकरशाही को ‘लूट’ के अवसर तो मिल ही जाते हैं। अगर जान-माल की ऐसी त्रासद स्थितियों की पुनरावृत्ति हम रोकना चाहते हैं तो हमें बनावटी राहत के मिशनों, हवाई सर्वेक्षणों से ऊपर उठकर एक नई शुरुआत करनी होगी, उन कारणों तथा नदियों की पड़ताल करनी होगी जो इस लीला की विभीषिका में मददगार हैं। तबाही के माध्यमों की शिनाख्त और उनके अनुकूल जल प्रबंधन के रास्तों की तलाश की गई, तो संभव है कि ये स्थितियां इतनी बेलगाम न हों । नदियों को जोड़ने की जो शुरूआत राजग सरकार ने की थी उससे इस संकट के समाधान निकल सकते थे किंतु इस योजना पर आगे बढ़कर काम शुरू नहीं हो सका। इसके चलते हम अपनी नदियों को न तो बचा पा रहे हैं न ही उनका लाभ ले पा रहे हैं। वर्षा जल के संचयन से लाभ उठाने के बजाए हम उसकी तबाही के फलितार्थ ही पा रहे हैं। देश में साठ सालों में हमले जलप्रबंधन की कोई विधि नहीं विकसित की। साथ ही आपदा प्रबंधन के भी हमारे इंतजाम सिर्फ भ्रष्टाचार को वैध बनाने के तरीके हैं। हम अपने लोगों को इन आपदाओं के असर से बचा नहीं पाते और उन्हें ज्यादा बदहाल बना देते हैं। देश के आपदा प्रबंधन तंत्र की विफलताएं हमेशा ऐसे प्रसंगों पर उजागर होती हैं। लोग तबाह होते रहते हैं। आज भी यह सोचने का समय है कि हम इन आपदाओं के निर्णायक समाधान की ओर क्यों नहीं बढना चाहते। क्यों हम चाहते हैं कि हम साल दर साल बाढ़ या सूखे या इंतजार करें। मानसून पर निर्भर हमारी ज्यादातर खेती को बचाने के लिए हम जलसंरक्षण के माकूल इंतजाम क्यों नहीं करते। क्या कारण है कि विकास का हमारा पश्चिमी माडल हम पर भारी पड़ रहा है किंतु हम नई और स्वदेशी विधियों के साथ काम करने को तैयार नहीं हैं। जलप्रबंधन में आज भी हमारे पास राजेंद्र सिंह जैसी प्रतिभाएं हैं जिनके पास नदियों को जिंदा करने के अनुभव है उनके अनुभवों से लाभ लेकर हमें एक समन्वित योजना बनाकर जल के प्रबंधन के स्वदेशी इंतजामों की ओर बढ़ना होगा। बड़े बांध और नहरों का फलित हम देख चुके हैं, तो इन प्रयोगों में हर्ज क्या है। उ. प्र. ,बिहार के बाद अब हरियाणा और पंजाब की त्रासकारी बाढ़ के संदेशों को पढ़कर यदि हम किसी बेहतर दिशा में बढ़ सकें तो शायद आगे हमें ऐसी विभीषिकाओं पर शर्मिन्दा न होने पड़े।

माओवादी आतंकवाद सबसे बड़ा खतराःसंजय


भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा पर व्याख्यान
पटना। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी का कहना है कि माओवादी आतंकवाद से अब निर्णायक जंग लड़ने की जरूरत है क्योंकि यह देश के लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। देश के सबसे गरीब 165 जिलों में काबिज माओवादी प्रतिवर्ष दो हजार करोड़ की लेवी वसूलकर हमारे गणतंत्र को नष्ट करने की साजिशों में लगे है। वे पटना (बिहार) स्थित बिहार उद्योग परिसंघ के सभागार में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला में “भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा” विषय पर मुख्यवक्ता के रूप में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
श्री द्विवेदी ने कहा कि आज हम विदेशी विचारों और विदेशी मदद से देश को तोड़ने के लिए चलाए जा रहे एक घोषित युद्ध के सामने हैं। जो लोग 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं हम किस तरह उनके प्रति सहानुभूति रख सकते हैं। उन्होंने कहा कि क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। श्री द्विवेदी ने सवाल किया कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें की जा रही हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
उन्होंने भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा।
कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार विधान परिषद् के सभापति ताराकांत झा ने की। इस अवसर पर श्री झा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुरसा की तरह मुंह फैलाए हुए है। देश का विकास इनके कारण अवरूद्ध हो गया है। श्री झा ने कहा कि साम्यवादी और माओवादी दोनों का गोत्र एक है। बिहार की सीमा नेपाल से सटे होने के कारण यहां हमेशा नक्सली घटना की आशंका बनी रहती है।
इस अवसर बिहार के वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘आज ’ के पूर्व संपादक पारसनाथ सिंह को देशरत्न राजेंद्र प्रसाद पत्रकारिता शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा सुश्री शालिनी सिंह (ईटीवी,पटना), अरूण अभि (दैनिक हिंदुस्तान) को भी सम्मानित किया गया। आयोजन में ‘बिहार में पत्रकारिता’ पर केंद्रित पुस्तिका का विमोचन भी हुआ। आयोजन में केंद्र के अध्यक्ष प्रकाश नारायण सिंह, डा. अर्जुन तिवारी, डा.शत्रुध्न प्रसाद, रामदेव प्रसाद, संजीव सिंह, विमल कुमार सहित अनेक गणमान्य नागरिक मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात लोकगायिका श्रीमती शांति जैन ने किया।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कालजयी साहित्यकार मुक्तिबोध की पत्नी का निधन


रायपुर।
प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन गुरुवार रात हो गया। उनकी उम्र 88 वर्ष थी। वे लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं। शुक्रवार सुबह 11 बजे उनका अंतिम संस्कार रायपुर के देवेंद्र नगर श्मशानघाट में किया गया। वे रमेश, दिवाकर, गिरीश व दिलीप मुक्तिबोध की माता थीं। उन्हें मुखाग्नि उनके कनिष्ठ पुत्र गिरीश मुक्तिबोध ने दी।कालजयी साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की जीवन संगिनी के तौर पर संघर्ष के दिनों उनका साए की तरह हर घड़ी उन्होंने साथ निभाया। इस बात का जिक्र व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, नेमीचंद्र जैन, अशोक वाजपेयी जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में प्रमुखता से किया है। पति के निधन के बाद बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ उनको मुकाम दिलाने में अहम भूमिका निभाई। वे मुक्तिबोध की स्मृति में होने वाले केवल चुने हुए कार्यक्रमों में ही हिस्सा ले पाती थीं।

शांता मुक्तिबोध का निधन

रायपुर. 9 जुलाई 2010

सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का गुरुवार की रात रायपुर में निधन हो गया. 88 वर्ष की शांता मुक्तिबोध लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं.
1939 में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्रेम विवाह करने वाली शांता जी ने मुक्तिबोध जी के हर सुख-दुख में साथ निभाया. गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के बाद उन्होंने अपने बच्चों का लालन-पालन और बेहतर शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शांता जी के बेटे दिवाकर मुक्तिबोध देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, वहीं गिरीश मुक्तिबोध भी पत्रकारिता से संबद्ध हैं. रमेश मुक्तिबोध और दिलीप मुक्तिबोध ने गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कृतियों का संपादन किया है।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

इस कठिन समय में उनके बिना


राष्ट्रवादी पत्रकारिता के प्रमुख हस्ताक्षर थे रामशंकर अग्निहोत्री
-संजय द्विवेदी

वे राममंदिर के आंदोलन के व्यापक असर के दिन थे। 1990 के वे दिन आज भी सिरहन से भर देते हैं। तभी मैंने पहली बार वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को विश्व संवाद केंद्र, लखनऊ के पार्क रोड स्थित दफ्तर में देखा था। आयु पर उनका उत्साह भारी था। उनके जीवन के लक्ष्य तय थे। विचारधारा उनकी प्रेरणा थी और कर्म के प्रति समर्पण उनका संबल। वे जानते थे वे किस लिए बने हैं और वे यह भी जानते थे कि वे क्या कर सकते हैं। तब से लेकर रायपुर, भोपाल और दिल्ली की हर मुलाकात में उन्होंने यह साबित किया कि वे न तो थके हैं न ही हारे हैं।
बुधवार सुबह जब रायपुर से डा. शाहिद अली का फोन आया कि अग्निहोत्री जी नहीं रहे तो सहसा इस सूचना पर भरोसा नहीं हुआ। क्योंकि उनकी गति और त्वरा कहीं से कम नहीं हुयी थी, इस विपरीत समय में भी और अपनी बढ़ती आयु के चलते भी। काम करने के अंदाज और तेजी से कहीं भी जा पहुंचने में वे हम नौजवानो से होड़ लेते थे। हम सोचते थे यह आदमी ऐसा क्यूं है। लेकिन पिछले साल जब मध्यप्रदेश की सरकार ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से अलंकृत किया और उस मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की मौजूदगी में पूर्व सरसंघचालक के.सी.सुदर्शन ने जो कुछ उनके बारे में कहा उसने कई लोगों के भ्रम दूर कर दिए। श्री सुदर्शन ने स्वीकार किया कि वे श्री अग्निहोत्री के ही बनाए स्वयंसेवक हैं और उनके एक वाक्य – “संघ तुमसे सब करवा लेगा” ने मुझे प्रचारक निकलने की प्रेरणा दी। यह एक ऐसा स्वीकार था जो रामशंकर अग्निहोत्री की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को जताने के लिए पर्याप्त था। यह बात यह भी साबित करती है कि अगर वे चाहते तो कोई भी उंचाई पा सकते थे किंतु उन्होंने जो दायित्व उन्हें मिला उसे लिया और प्रामणिकता से उसे पूरा किया। आज की राजनीति में पदों की दौड़ में लगे लोग उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।
4 अप्रैल, 1926 को मप्र के सिवनी मालवा में जन्में श्री अग्निहोत्री की जिंदगी एक ऐसे पत्रकार का सफर है जिसने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। वे अपनी युवा अवस्था में जिस विचार से जुड़े उसके लिए पूरी जिंदगी होम कर दी। विचारधारा और लक्ष्यनिष्ठ जीवन के वे ऐसे उदाहरण थे जिस पर पीढ़ियां गर्व कर सकती हैं। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, तरूण भारत, हिंदुस्तान समाचार, आकाशवाणी, युगवार्ता वे जहां भी रहे राष्ट्रवाद की अलख जगाते रहे। उनका खुद का कुछ नहीं था। देश और उसकी बेहतरी के विचार उनकी प्रेरणा थे। राजनीति के शिखर पुरूषों की निकटता के बावजूद वे कभी विचलित होते नहीं दिखे। युवाओं से संवाद की उनकी शैली अद्बुत थी। वे जानते थे कि यही लोग देश का भविष्य रचेंगें। रायपुर में हाल के दिनों में उनसे अनेक स्थानों पर, तो कभी डा. राजेंद्र दुबे के आवास पर जब भी मुलाकात हुयी उनमें वही उत्साह और अपने लिए प्यार पाया। वे सदैव मेरे लिखे हुए पर अपनी सार्थक टिप्पणी करते। अपने विचार परिवार के प्रति उनका मोह बहुत प्रकट था। संपर्कों के मामले में उनका कोई सानी न था। पहली मुलाकात में ही आपका परिचय और फोन नंबर सब कुछ उनके पास होता था और वे वक्त पर आपको तलाश भी लेते। मैंने पाया कि उनमें बढ़ी आयु के बावजूद चीजों को जानने की ललक कम नहीं हुयी थी वे मुझे कभी विश्राम में दिखे ही नहीं। यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी सक्रियता ही उसकी पहचान थी। हर आयोजन में वे आते और खामोशी से शामिल हो जाते। उन्हें इस बात की कभी परवाह नहीं थी उन्हें नोटिस भी किया जा रहा है या नहीं। मान-अपमान की परवाह उन्होंने कभी नहीं की, इस तरह के मिथ्या दंभ से दूर वे अपने बहुत कम आयु के हम जैसे नौजवानों के बीच भी खुद को सहज पाते तो सत्ता और शासन के शिखरों पर बैठे लोगों के बीच भी। जो व्यक्ति पांचजन्य का प्रबंध संपादक, राष्ट्रधर्म का संपादक, लगभग एक दशक नेपाल में एक हिंदी समाचार एजेंसी का संवाददाता रहा हो, हिंदुस्तान समाचार का प्रधानसंपादक और अध्यक्ष जैसे पदों पर रहा हो, जिसे भारतीय जनता पार्टी ही नहीं देश की राजनीति के प्रथम पंक्ति के सभी राजनेता प्रायः नाम से पुकारते हों, जिसने दर्जन भर देशों की यात्राएं की हों, साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में जिसकी एक बड़ी जगह हो। माधवराव सप्रे संग्रहालय,भोपाल से लेकर इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती जैसे संस्थाएं जिसे सम्मानित कर चुकी हों ऐसे व्यक्ति का इस कठिन समय में चला जाना वास्तव में एक बड़ा शून्य रच रहा है। वास्तव में वे एक ऐसे समय में हमसे विदा हुए हैं जब पत्रकारिता पर पेड न्यूज और राजनीति पर जनविरोधी आचरणों के आरोप हैं। देश अनेक मोर्चों पर कठिन लड़ाइयां लड़ रहा है चाहे वह महंगाई, आतंकवाद और नक्सलवाद की शक्ल में ही क्यों न हों। आज हम यह भी कह सकते हैं कि रामशंकर अग्निहोत्री अपने हिस्से का काम कर चुके हैं, पर क्या हमारी पीढ़ी में उनका उत्तराधिकार, उनकी शर्तों पर लेने का साहस है ? शायद नहीं, क्योंकि ये जगह सिर्फ उनकी है और इस विपरीत समय में सारे युद्ध हमें ही लड़ने हैं उनके बिना ही।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

खामोश परिसरों में हलचलों का इंतजार



सार्थक प्रतिरोध की शक्ति को जगाएं छात्र संगठन
-संजय द्विवेदी

छात्र आंदोलन के यह सबसे बुरे दिन हैं। छात्र आंदोलनों का यह विचलन क्यों है अगर इसका विचार करें तो हमें इसकी जड़ें हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में दिखाई देंगी। आज के तमाम हिंसक अभियानों व आंदोलनों के पीछे और आगे युवा ही दिखते हैं। यह हो रहा है और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं। क्योंकि स्पष्ट सोच, वैचारिक उर्जा और समाज जीवन में मूल्यों की घटती अहमियत ने ही ऐसे हालात पैदा किए हैं। ऐसे में विघटनकारी तत्वों ने समाज को बदलने की उर्जा रखने वाले नौजवानों के हाथ में कश्मीर, पूर्वोत्तर के सात राज्यों समेत तमाम नक्सलप्रभावित राज्यों में हथियार पकड़ा दिए हैं। भारतीय युवा एवं छात्र आंदोलन कभी इतना दिशाहारा और थकाहारा न था। आजादी के पहले नौजवानों के सामने एक लक्ष्य था। अपने बेहतर कैरियर की परवाह न करके उस दौर में उन्होंने त्याग और बलिदान का इतिहास रचा। भाषा और प्रांत की दीवारें तोड़ते हुए देश के हर हिस्से के नौजवान ने राष्ट्रीय आंदोलन में अपना योगदान किया।
आजादी के बाद बिगड़े हालातः
आजादी के बाद यह पूरा का पूरा चित्र बदल गया। नौजवानों के सामने न तो सही लक्ष्य रखे गए, न ही देश की आर्थिक संरचना में युवाओं का विचार कर ऐसे कार्यक्रम बनाए गए जिससे देश के विकास में उनकी भागीदारी तय हो पाती। इस सबके बावजूद देश के महान नेताओं के प्रभामंडल से चमत्कृत छात्र-युवा शक्ति, उनके खिलाफ अपनी जायज मांगों को लेकर भी न खड़ी हो पायी। क्योंकि उस दौर के लगभग सभी नेता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े थे और उनकी देशनिष्ठा-कर्त्व्यनिष्ठा पर उंगली उठाना संभव न था। किंतु यह दौर 1962 में चीन-भारत युद्ध में भारत की हार के साथ खत्म हो गया। यह हताशा इस पराजय के बाद व्यापक छात्र-आक्रोश के रूप में प्रकट हुयी। देश के महानायकों के प्रति देश के छात्र-युवाओं के मोहभंग की यह शुरूआत थी।
1962 का यह साल, आजादी मिलने के बाद छात्र-आंदोलन में आई चुप्पी के टूटने का साल था। भारतीय सेनाओं की पराजय से आहत युवा मन को यदि उस समय कोई सार्थक नेतृत्व मिला होता तो निश्चय ही देश की तस्वीर कुछ और होती। इसके तत्काल बाद सरकार ने महामना मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय का नाम बदलकर काशी विश्वविद्यालय रखने का विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया। इस प्रसंग में पूरे देश के नौजवानों की तीखी प्रतिक्रिया के चलते सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा। अपनी सफलता के बावजूद इस प्रसंग ने छात्र राजनीति को धार्मिक आधार पर बांट दिया। इन्हीं दिनों भाषा विवाद भी गहराया और इसने भी छात्रों को उत्तर-दक्षिण दो खेमों में बांट दिया। दक्षिण में छात्रों के अंग्रेजी समर्थक आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया।1967 का यह दौर भाषा आंदोलन तीव्रता का समय था। सरकार द्वारा अंग्रेजी को स्थायी रूप से जारी रखने के फैसले के खिलाफ उत्तर भारत में चले इस आंदोलन को समाज भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। कई बड़े साहित्यकारों ने अपनी उपाधियां और पुरस्कार सरकार को लौटाकर अपना जताया। छात्र आंदोलन की व्यापकता और सामाजिक समर्थन के बावजूद सरकारी हठधर्मिता के चलते अंग्रेजी को स्थायित्व देने वाला विधेयक लोकसभा में पारित हो गया। इस आंदोलन ने छात्रों के मन में तत्कालीन शासन के प्रति गुस्से का निर्माण किया। इस दौर में सत्ता से क्षुब्ध नौजवान हिंसक प्रयोगों की ओर भी बढ़े, जिसके फलस्वरूप नक्सली आंदोलन का जन्म और विकास हुआ। जिसके नेता चारू मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल थे। इसके पीछे अहिंसक विचारधारा से उपजा नैराश्य था जिसने नौजवानों के हाथ में बंदूके पकड़ा दीं।
व्यवस्था परिवर्तन के वाहकः
इन अवरोधों के बावजूद नौजवानों का जज्बा मरा नहीं। वह निरंतर सत्ता से सार्थक प्रतिरोध करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की धार को तेज करने की कोशिशों में लगा रहा। इन दिनों अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी युवजन सभाष स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया जैसी तीन राजनीतिक शक्तियां परिसरों में सक्रिय थीं। तीनों की अपनी निश्चित प्रतिबद्धताएं थीं। इन संगठनों ने छात्रसंघ चुनावों में अपने हस्तक्षेप से छात्रों के जोश और उत्साह को रचनात्मक दिशा प्रदान की। छात्रों के भीतर जो उत्तेजनाएं थीं उन्हें जिंदा रखकर उसका सही ढंग से इस्तेमाल किया गया। इस दौर में डा. राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व का नौजवानों पर खासा असर रहा।
इस सदी के आखिरी बड़े छात्र आंदोलन की शुरूआत 1974 में गुजरात के एक विश्वविद्यालय के मेस की जली रोटियों के प्रतिरोध के रूप में हुयी और उसने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की भावभूमि तैयार की। विद्यार्थी परिषद, युवजन सभा के नेताओं की सक्रियता और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालने के बाद यह आंदोलन युवाओं की भावनाओं का प्रतीक बन गया। किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद कुर्सी की रस्साकशी में संपूर्ण क्रांति का नारा तिरोहित हो गया। रही सही कसर जेपी के असामयिक निधन ने पूरी कर दी। यह भारतीय छात्र आंदोलन के बिखराव, ठहराव और तार-तार होकर बिखरने के दिन थे। नौजवान असहाय और ठगे-ठगे से जनता प्रयोग की विफलता का तमाशा देखते रहने को मजबूर थे।
आदर्शविहीनता ने ली मूल्यों की जगहः
सपनों के इस बिखराव के चलते छात्र राजनीति में मूल्यों का स्थान आर्दशविहीनता ने ले लिया। राजनीति से हुयी अपनी अनास्था और प्रतिक्रिया जताने की गरज से युवा रास्ते तलाशने लगे। आदर्शविहीनता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में तब तक संजय गांधी का उदय हो चुका था। उनके साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली उदंड नौजवानों की एक पूरी फौज थी जो सारा कुछ डंडे के बल पर नियंत्रित करना चाहती थी। जिसके पास आदर्श और नैतिकता नाम की कोई चीज नहीं थी। जेपी आंदोलन में पैदा हुयी युवा नेताओं की इफरात जमात,जनता पार्टी की संपूर्ण क्रांति की विफलता की प्रतिक्रिया में युवक कांग्रेस से जुड़ गयी। यहा ‘संजय गांधी परिघटना’ की जीत हुयी और छात्र आंदोलनों से नैतिकता, आस्था और विचार दर्शन की राजनीति के भाव तिरोहित हो गए। इसके बाद शिक्षा मंदिरों में हिंसक राजनीति, छेड़छाड़, अध्यापकों से दुव्यर्हार, गुंडागर्दी, नकल, अराजकता और अनुशासनहीनता का सिलसिला प्रारंभ हुआ। छात्रसंघ चुनावों में बमों के धमाके सुनाई देने लगे। संसदीय राजनीति की सभी बुराईयां छात्रसंघ चुनावों की अनिर्वाय जरूरत बन गयीं। परिसरों में पठन-पाठन का वातावरण बिगड़ा। छात्र अपने मूल मुद्दों से भटक गए। दलीय राजनीति, जातीय राजनीति, माफियाओं और धनपतियों की धुसपैठ ने छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए। इससे छात्र राजनीति की धीमी मौत का सिलसिला शुरू हो गया। इसी दौर में लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रवींद्र सिंह की हत्या हुयी और कुछ परिसरों से छात्राओं के साथ दुराचार की खबरें भी आयीं। इन सूचनाओं ने वातावरण को बहुत विषाक्त कर दिया। इससे परिसर संस्कृति विकृत हुयी।
विफल हुआ असम आंदोलनः
1981 में असम छात्र आंदोलन की अनुंगूंज सुनाई देने लगी। लंबे संघर्ष के बाद प्रफुल्ल कुमार महंत असम के मुख्यमंत्री बने। किंतु सत्ता में आने के बाद महंत की सरकार ने बहुत निराश किया। यह सही मायने में पहली बार पूरी तरह छात्र आंदोलन से बनी सरकार थी। जिसकी निराशाजनक परिणति ने छात्र आंदोलनों की नैतिकता और समझदारी पर सवालिया निशान लगा दिए। इस घटाटोप के बीच राजीव गांधी जैसे युवा प्रधानमंत्री के उभार ने युवाओं को एक अलग तरीके से प्रेरित किया किंतु जल्दी ही बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के साथ प्रकट हुए। नौजवान उनके साथ पूरी ऊर्जा से लगा और वे देश के प्रधानमंत्री बने। यहां फिर जनता प्रयोग जैसे हाल और सत्ता संधर्ष से नौजवानों को निराशा ही हाथ लगी। मंडल आयोग की रिपोर्ट को हड़बड़ी में लागू करने के चलते नौजवानों के एक तबके में अलग किस्म का आक्रोश नजर आया। इस आंदोलन में हुयी आत्महत्याएं निराशा का चरमबिंदु थीं। ये बताती थीं कि युवा व्यवस्था में अपनी जगह को सिकुड़ता हुआ पाकर कितना निराश है। ऐसा लगा कि नौजवानों के पास अब भविष्य की आशा, आदर्श और भविष्य की इच्छाएं चुक सी गयी हैं। इस दौर ने संधर्ष के मार्ग को लूट के मार्ग में बदल दिया। बड़े आदर्शों की जगह विखंडित आदर्शों ने अपनी जगह बना ली।
छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर उठे सवालः
ये परिस्थितियां बताती थीं कि कमोबेश समस्त छात्र संगठन और छात्र नेता राजनीतिक दलों की चेरी बन गए हैं। छात्र संगठनों के एजेंडे भी अब राजनीतिक पार्टियां तय कर रही हैं। ये समूह किसी परिवर्तन का वाहक न बनकर अपनी ही पार्टी का साइनबोर्ड बनकर रह गए हैं। इनके सपने, आदर्श सब कुछ कहीं और तय होते हैं। छात्रसंघों की बदलती भूमिका और घटती प्रासंगिकता ने छात्रों के मन से उनके प्रति सहानुभूति खत्म कर दी है। छात्रसंघ चुनावों को उन मुख्यमंत्रियों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है जो छात्र आंदोलन से ही जन्में हैं। जहां चुनाव हो रहे हैं वहां भी मतदान का प्रतिशत गिर रहा है। ऐसा लगता है कि छात्रसंघ अब आम छात्रों की शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रतिभा के उन्नयन का माध्यम नहीं रहे। वे अराजक तत्वों और माफियाओं के अखाड़े बन गए हैं। छात्रसंघों ने सदैव भ्रष्ट राजसत्ता को चुनौती देने का काम किया है किंतु आज वे सत्तासीनों की आंख में गड़ने लगे हैं। छात्रसंघ चुनाव की विकृतियां भी हमारे संसदीय लोकतंत्र ही देन हैं। यहां तर्क यह भी है कि यदि तमाम बुराईयों के बावजूद लोकसभा से लेकर पंचायत के चुनाव हम करा रहे हैं तो छात्रसंघ की प्रतिबंधित क्यों। हमें इन चुनावों में सुधार की बात करनी चाहिए न कि इनका गला घोंटना चाहिए।
कुल मिलाकर देश को अपनी रचनात्मकता और संघर्ष से दिशा देने वाले परिसर आज नैतिकता और संस्कारहीन व्यवहार का पर्याय बन गए हैं। जो परिसर ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर संवाद का केंद्र हुआ करते थे, वे आज मूल्यहीन आपराधिक राजनीति का केंद्र बन गए हैं। जिन छात्रसंघों से निकले छात्रनेताओं ने देश का योग्य मार्गदर्शन किया और राजनीति को दिशा दी वहीं से आज पथभ्रष्ट और टुटपुजियां कार्यकर्ता निकल रहे हैं। ऐसे हालात में छात्रराजनीति के सामने गहरा संकट है। अपने शैक्षिक अधिकारों, निर्धनता, बेरोजगारी और विषमता के खिलाफ इन परिसरों से आवाज नहीं आती। अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की प्रवृति भी कम हुयी है। आज की आदर्शविहीनता, बाजारवादी हवाओं में हमारे परिसरों में संस्कृति कर्म के नाम पर फेयरवेल या फ्रेशर्स पार्टियां होती हैं जहां हमारे युवा मस्त-मस्त होकर झूम रहे हैं।परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें।
संवाद नहीं, परिसरों में पसरा मौनः
परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्कालीन सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। छात्र आंदोलन के दिन तभी बहुरेंगें जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें तभी लौटगें जब परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने। तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए।
देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। ऐसे कठिन समय में जब बाजार हमारी सभी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर अपनी रूचियों का आरोपण कर रहा है, ऐसे में हर तरह के आंदोलन,संवाद और बहसें खतरे में हैं। इसे बचाने के लिए के हम सभी को अपने-अपने तरीके से काम करने की जरूरत है क्योंकि तभी लोकतंत्र बचेगा और मजबूत भी होगा। खामोश परिसर हमारे लिए खतरे की घंटी हैं क्योंकि वे कारपोरेट के पुरजे तो बना सकते हैं पर मनुष्य बनाने के लिए संवाद, विमर्श और लड़ाइयां जरूरी हैं। इसलिए हमें नए जमाने के नए हथियारों और नए तरीकों से फिर से उस आंदोलन की धार को पाना होगा जिसे गवां बैठने का दुख हर संवेदनशील आदमी को बेतरह मथ रहा है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

बहादुर सेना, कमजोर सरकार और बेबस लोग !

देशतोड़क राजनीति से सावधान होने की जरूरत
- संजय द्विवेदी

दिल्ली में क्या इससे कमजोर सरकार कभी आएगी ? कमजोर इसलिए क्योंकि इस सरकार के लिए देश के सम्मान, देश की जनता के जान-माल और हमारे सेना-सुरक्षा बलों की जान की कोई कीमत नहीं है। हो सकता है कि हालात इससे भी बुरे हों। किंतु अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दिल्ली में इतनी बेचारी, लाचार और कमजोर सरकार आज तक नहीं आयी। थोपे गए नेतृत्व और स्वाभाविक नेतृत्व का अंतर भी इसी परिघटना में उजागर होता है। दिल्ली में एक ऐसे आदमी को देश की कमान दी गयी है जो आर्थिक मामलों पर जब बोलता है तो दुनिया सुनती है (बकौल बराक ओबामा)। किंतु उसके अपने देश में पिछले छः सालों से उसके राज में महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है किंतु वह आदमी अपने देश की महंगाई पर कुछ नहीं बोलता। परमाणु करार विधेयक पास कराने के लिए अपनी सरकार तक गिराने की हद तक जाने वाले हठी प्रधानमंत्री को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनकी सरकार के कार्यकाल में लोगों का जिंदगी बसर करना कितना मुश्किल है और कितने किसान उनके राज में आत्महत्या कर चुके हैं। यह एक ऐसी सरकार है जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता नहीं पिछले पांच सालों में अकेले नक्सली आतंकवाद में ग्यारह हजार लोग मारे जा चुके हैं। वह इस बात पर विमर्श में लगी है कि सेना का इस्तेमाल हो या न हो। क्या ऐसा इसलिए कि नक्सली आतंक एक ऐसे इलाके में है जहां आम आदिवासी रहते हैं जिन्हें मिटाने और समाप्त करने का साझा अभियान नक्सली नेताओं और सरकार ने मिलकर चला रखा है। झारखंड से लेकर बस्तर तक की जमीन जहां उसके असली मालिक वनपुत्र और आदिवासी रहते हैं, एक युद्ध भूमि में तब्दील हो गयी है। जहां विदेशी विचार(माओवाद) और विदेशी हथियारों से लैस लोग 2050 तक भारतीय गणतंत्र पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। फिर भी हमारी सरकार को इस इलाके में सेना नहीं चाहिए। भले नक्सली तीन माह में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों को अकेले बस्तर में ही न मार डालें। वे हजारों करोड़ की लेवी वसूलते हुए इन जंगलों में लैंड माइंस बिछाते रहें और हमारा राज्य रोम के जलने पर नीरो की तरह बांसुरी बजाता रहे।
अब थोड़ा देश के मस्तक पर नजर डाल लें। यह जम्मू कश्मीर का इलाका है जो कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था। आज इस क्षेत्र को हमारी सरकारों की घुटनाटेक और कायर नीतियों ने घरती के नरक में बदल दिया है। हमारी सेना के अलावा इस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कोई नहीं बचा है। कश्मीर के पंडितों के विस्थापन के बाद इस पूरे इलाके में पाकपरस्त आतंकी संगठनों का हस्तक्षेप है। उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधक भारतीय सेना है। हमारी महान सरकार अब सेना के हाथ से भी कवच-कुंडल छीनने पर आमादा है ताकि कश्मीर में भारतीय राज्य की एक और पराजय सुनिश्चित की जा सके। इस काम में दिल्ली की सरकार बराबर की भागीदार है। कश्मीर के मुख्यमंत्री और उनके पिता का सर्वाधिक दबाव इस बात पर है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव किया जाए। यह बदलाव क्यों किया जाए इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। किंतु बदलाव होने जा रहा है और प्रधानमंत्री ने उसे मंजूरी भी दे दी है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। यह एक ऐसी सूचना है जो हर भारतीय को हतप्रभ करने के लिए काफी है। देश के साठ सालों बाद भी हमारी सरकार अपनी ही सेना के खिलाफ खड़ी है। क्या भारतीय की राजनीति इतनी दिशाहारा और थकाहारा हो चुकी है? क्या हमारी सरकारें अपना विवेक खो चुकी हैं? वे सेना को मानवता और संवेदनशीलता सिखा रही है। नए बदलाव में सेना शत्रु को पकड़ने और गोली चलाने का अधिकार खो देगी। फिर सेना की जरूरत ही क्या है। ऐसे हालात में कहीं यह कश्मीर को पाक को सौंप देनी की एक लाचार कवायद तो नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ जब हमें कड़े संदेश देने की जरूरत है तब हम अपनी सेना को ही कमजोर बनाना चाहते हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारी सेना ने अनेक अवसरों पर अपने अप्रतिम साहस के प्रदर्शन से भारत के मान को बचाया है।जबकि राजनैतिक नेतृत्व सदा जमीनें छोड़ता, युद्धबंदियों को छोड़ता और समझौते करता आया है। इन्हीं समझौतों और वोट की कथित लालच ने हमारे नेताओं को इतना बेचारा बना दिया है कि हमारे नेता ही कहते हैं कि अगर अफजल गुरू को फांसी दी गयी तो कश्मीर सुलग जाएगा। तो आप बताएं इस समय कश्मीर क्यों सुलग रहा है। किसे फांसी दी गयी है। कश्मीर के नेता भारत के साथ रहने की कीमत वसूल रहे हैं। उन्हें इस देश से कोई लेना-देना नहीं है। नहीं तो वे विस्थापित हिंदुओं की वापसी की बात क्यों नहीं करते, पर उन्हें तो सेना की वापसी चाहिए ताकि वे आराम से पाकिस्तानी हुक्मरानों की गोद में जा बैठें। जो अब्दुला परिवार सालों से कश्मीरी राजनीति का सिरमौर बना है, भारत ने उनका इतना सम्मान किया पर वे आज अफजल गुरू की फांसी रोकने की अपीलें कर रहे हैं। दूसरा मुफ्ती परिवार भारतीय संविधान की शपथ लेकर देश का गृहमंत्री बनता है तो अपनी ही बेटी का अपहरण करवाकर आतंकियों की रिहाई का नाटक रचता है। दुर्भाग्य से ऐसे ही लोग भारत भाग्य विधाता बनकर बैठे हैं। इसी तरह पूर्वांचल के सात राज्यों का बुरा हाल है। असम से लेकर मणिपुर तक बुरी खबरें हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों ने असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक हालात बदतर कर रखें हैं। हमारी सरकारें उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं। राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सिर्फ पांच साल और वोट बैंक दिखता है। सो वे घुसपैठियों के राशन कार्ड बनवाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने और अवैध बस्तियां बसाने में सहयोगी बनते हैं। जाहिर तौर पर इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बहुत विकराल स्वरूप ले चुका है।
हम अपनी सेना और सुरक्षा बलों को लाचार बना कर पहले से तैयार बैठे शत्रुओं को अवसर सुलभ करा रहे हैं। अभी पाक प्रेरित आतंकवाद के लिए भी हमारी अपनी ताकत क्या है। हमारी सरकार को हर शिकायत लेकर अमरीका के दरबार में जाना पड़ता है। कल अगर सेना का भी मनोबल टूट गया तो उस दृश्य की कल्पना करना भी मुश्किल है कि हमारा क्या होगा। देश इस देश के लोगों का है, जो इसे बेबस निगाहों से देख रहे हैं। यह देश अगर दलित, मुस्लिम और ईसाई जैसी राजनीतिक बोलियों से चलाया जाएगा तो इसे कोई बचा नहीं सकता। शायद इसीलिए हम देश का तेजी से विघटन होता देख रहे है। यह विघटन चरित्र का है, नैतिकता का है, देशभक्ति का भी है। देश का राजनीतिक नेतृत्व किसी भी प्रकार का आर्दश प्रस्तुत कर पाने में विफल है। सारे संकटों में मौन ही हमारे राजनैतिक नेतृत्व का आर्दश बन गया है। आप देखें तो हाल के तीन बड़े संकटों भोपाल गैस त्रासदी, कश्मीर संकट और महंगाई पर देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी का कोई बयान नहीं आया है। ऐसा नेतृत्व क्या आपको संकटों से निजात दिला सकता है या आपकी जिंदगी के अँधेरों से मुक्ति दिला सकता है। प्रधानमंत्री से कोई उम्मीद करना तो व्यर्थ ही है क्योंकि उनकी नजर में हम भारत के लोगों का कोई मतलब नहीं है। ऐसे घने अंधेरे में आशा की कोई किरण नजर आती है तो वह शक्ति जनता के पास ही है कि वह अपने राजनीतिक नेतृत्व पर कोई ऐसा दबाव बनाए जिससे वह कम से कम देश के हितों, सुरक्षा के साथ सौदेबाजी न कर सके। देश में एक ऐसा अराजनैतिक अभियान शुरू हो जहां देश सर्वोपरि है, इस भावना का विस्तार हो सके। वरना हमारी राजनीति हमें यूं ही बांटती,तोड़ती और कमजोर करती रहेगी।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

घुटनाटेक नीतियों से बदहाल देश

राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता का शिकार हो रहे हैं सुरक्षाबल

-संजय द्विवेदी

पिछले दिनों ‘नक्सलवाद और लोकतंत्र ’ विषय पर एक व्याख्यान देने के लिए मैं बिहार की राजधानी पटना में था। इस आयोजन में ही बिहार विधानपरिषद के सभापति और विद्वान राजनेता ताराकांत झा ने मुझसे एक सवाल किया कि “आप बताएं कि कौन सा ऐसा एक मुद्दा या विषय है जिस पर पूरा देश एकमत है ?” जाहिर तौर पर श्री झा के सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना ही कह पाया कि माननीय सांसदों के वेतन-भत्तों के सवाल पर तो पूरी संसद एकमत है, पर श्री झा का सवाल इस तरह हवा में उड़ाने का नहीं है। यह देश का एक ऐसा प्रश्न है जिसके ठोस और वाजिब उत्तर की तलाश हमने आज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी। सही मायने में यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर न हमारी राजनीति के पास है न हम भारत के लोगों के पास।
पिछले पांच सालों में जिस नक्सली आतंकवाद ने 11 हजार लोगों की जान ले ली है, उस पर भी हम विमर्श कर रहे हैं- कि यह गलत है या सही। बाढ़, आपदाओं और शहरी दंगों में सेना को बुला लेने वाली हमारी सरकारें देश के लोकतंत्र के खिलाफ धोषित युद्ध (नक्सलवाद) के समन के लिए सेना को बुलाने के खिलाफ हैं। जिस कश्मीर को घरती का स्वर्ग कहा जाता था उसे नरक में बदलने वालों के हाथ में हमारी सरकारें और उनकी नीतियां बंधक हैं। पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं। क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। देश की महान राजनीति में सालों से जिस एक परिवार ने कुछ खास कारणों से जम्मू-कश्मीर में राज किया और आज भी कर रहे हैं, उनकी सुनिए वे कहते हैं अफजल गुरू को फांसी दी तो कश्मीर सुलग जाएगा। आज भी तो कश्मीर सुलग रहा है तो किसको फांसी दी गयी है। घाटी से जब कश्मीरी पंडितों को भागने के लिए मजबूर किया गया तब यह परिवार कहां था। आज उनकी सरकार है तो वे कश्मीरी पंडितों को वापस लाने की बात नहीं करते, अफजल गुरू की पैरवी में लगे हैं। हमारे सुरक्षा बल और सेना इस घटिया राजनीति की सबसे बड़ी शिकार है, वे जान हथेली पर लेकर कठिन परिस्थितियों में इस लोकतंत्र की जड़ों की खोखला करने वालों के खिलाफ लड़ रहे हैं और हमारी राजनीति उन्हीं देशद्रोहियों को अपनी गलत नीतियों से ताकत दे रही है। यह कितना गजब है कि सारे पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते खराब हैं पर उनके नागरिक बेरोक-टोक भारत में आ- जा सकते हैं। घुसपैठ पर हमारे महान देश के पास कोई नीति नहीं है और हमारे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता इस घुसपैठ को वैध करार देने के लिए इन घुसपैठियों की बस्तियां बसाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने, राशन कार्ड बनवाने में लगे हैं। क्योंकि इन सावन के अंधों को हर घुसपैठिया राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संकट कम, वोट बैंक ज्यादा दिखता है। असम और पश्चिम बंगाल के तमाम जिलों के हालात और देश के तमाम महानगरों के हालात इन्हीं ने बिगाड़ रखे हैं। किंतु भारत तो एक धर्मशाला है।

सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें। आप बताएं अगर आज सेना भी घाटी से वापस लौटती है तो उस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कौन है? क्या इस इलाके को लश्कर के अतिवादियों को सौंप दिया जाए या उस अब्दुल्ला खानदान को जो भारत के साथ खड़े रहने की सालों से कीमत वसूल रहा है। या उस मुफ्ती परिवार को जो आतंकवदियों की रिहाई के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री रहते हुए अपनी बेटी के अपहरण का भी नाटक रच सकते हैं। आखिर हम भारत के लोग इस तरह की कायर जमातों पर भरोसा कैसे कर सकते हैं ? जो सेना शत्रु को न पकड़ सकती है, न उस पर गोली चला सकती है। उसे किस चिदंबरम और मनमोहन सिंह के भरोसे आतंकवादियों के बीच शहादत के लिए छोड़ दिया जाए,यह आज का यक्ष प्रश्न है। आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, संकटग्रस्त इलाकों में सेना को खास शक्तियों के इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। अब सरकार कह रही है पिटो, सीने पर गोलियां खाओ पर चुप रहो क्योंकि तुम्हारी चुप्पी आतंकी संगठन, पाकिस्तान, मानवाधिकार संगठनों, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, कुछ राजनीतिक दलों के वोटबैंक के काम आती है। कश्मीर की आज की राज्य सरकार का दबाव सबसे ज्यादा है कि इस एक्ट को हटाया जाए। प्रधानमंत्री भी स्वीकृति दे चुके हैं। थल सेनाअध्यक्ष वीके सिंह ने इस प्रस्ताव का स्पष्ट रूप से विरोध किया है कि यह छिछली राजनीति से प्रभावित है।
आज जब भारत को आतंकवाद के खिलाफ कड़े संदेश देने का समय है तो वह अपनी महान सेना से ही कवच-कुंडल की मांग कर उसे निशस्त्र बना देना चाहता है। ऐसे में क्या कोई परिवार अपने बच्चों को सेना में भेजना चाहेगा। सेना में जाने वाला जवान अपनी जान हथेली पर लेकर देश के लिए लड़ने जाता है, मरने के लिए नहीं। हमारी सरकार के ताजा प्रावधान अगर लागू हो पाए तो वह सेना को सामान्य पुलिस की बराबरी पर ला खड़ा करेंगें। क्या हमें इसके खतरों का अंदाजा है। राजनीति की अपनी सीमित जगह है जबकि देश का सम्मान सबसे बड़ा है। अफसोस राजनीति पांच साल से आगे सोच नहीं पाती जबकि देश को सालों- साल जीना और आगे बढ़ना है। हमारी सेना के खिलाफ यह राजनीतिक षडयंत्र, भगवान करे सफल न हो। किंतु आतंकवादी शक्तियों और उनके शुभचिंतकों की राय पर अगर भारत सरकार फैसले लेगी तो यह देश टूट जाएगा। आज के नेतृत्व विहीन, कमजोर भारत में इतना आत्मविश्वास तो भरना ही होगा कि वह देश के हितों के खिलाफ फैसला लेने की हिम्मत न जुटा सके। यह देश रहेगा तो माननीयों की कुर्सियां रहेंगीं, उनका मान रहेगा पर जब देश ही न होगा तो वे क्या करेंगें। इस कठिन समय में याद आती है स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की, अगर वे होतीं क्या आतंकवादियों को ऐसी शह मिल पाती, अगर वे होती तो क्या दिल्ली की सरकार नक्सलवाद पर किंतु-परंतु की राजनीति कर पाती। यह दुर्भाग्य है कि देश की इतनी शक्तिमान नेता के दल के नेतृत्व में ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं जिससे पूरा देश अशांत है। देश की आर्थिक प्रगति को लेकर चमत्कृत दिल्ली की सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि अगर देश की पहचान एक अशांत देश के रूप में स्थापित हो गयी तो दुनिया में हम क्या मुंह दिखाएंगें। हमारी सेना की भूमिका बहुत सीमित है उसे देश की सीमाओं की रक्षा करनी है। हमें संकटों से बचाना है। किंतु समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक नेतृत्व का आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति ही मायने रखती है। हमारी केंद्र सरकार की घुटनाटेक नीतियों से सिर्फ यही हो रहा है कि आतंकवादियों का मनोबल बढ़ रहा है और हमारे सुरक्षाबलों को आतंकी गोलियां अपना निशाना बना रही है। कश्मीर से लेकर पूर्वांचल के सात राज्यों समेत नक्सल प्रभावित सभी राज्यों की कहानी एक है जहां जवानों का, आम हिंदुस्तानी का खून बह रहा है। अब सवाल यह उठता है कि इतने हौलनाक और रक्तरंजित दृश्यों के बावजूद हमारी राजनीति, हमारे राजनेताओं और हमारी सरकारों का खून क्यों नहीं खौलता।