गुरुवार, 25 मार्च 2010

कानू सान्यालः विकल्प के अभाव की पीड़ा



- संजय द्विवेदी
कुछ ही साल तो बीते हैं कानू सान्याल रायपुर आए थे। उनकी पार्टी भाकपा (माले) का अधिवेशन था। भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर चौरे ने मुझे कहा तुम रायपुर में हो, कानू सान्याल से बातचीत करके एक रिपोर्ट लिखो। खैर मैंने कानू से बात की वह खबर भी लिखी। किंतु उस वक्त भी ऐसा कहां लगा था कि यह आदमी जो नक्सलवादी आंदोलन के प्रेरकों में रहा है कभी इस तरह हारकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएगा। जब मैं रायपुर से उनसे मिला तो भी वे बस्तर ही नहीं देश में नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा और काम करने के तरीके पर खासे असंतुष्ट थे। हिंसा के द्वारा किसी बदलाव की बात को उन्होंने खारिज किया था। मार्क्सवाद-लेलिनवाद-माओवाद ये शब्द आज भी देश के तमाम लोगों के लिए आशा की वैकल्पिक किरण माने जाते हैं। इससे प्रभावित युवा एक समय में तमाम जमीनी आंदोलनों में जुटे। नक्सलबाड़ी का आंदोलन भी उनमें एक था। जिस नक्सलबाड़ी से इस रक्तक्रांति की शुरूआत हुई उसकी संस्थापक त्रिमर्ति के एक नायक कानू सान्याल की आत्महत्या की सूचना एक हिला देने वाली सूचना है, उनके लिए भी जो कानू से मिले नहीं, सिर्फ उनके काम से उन्हें जानते थे। कानू की जिंदगी एक विचार के लिए जीने वाले एक ऐसे सेनानी की कहानी है जो जिंदगी भर लड़ता रहा उन विचारों से भी जो कभी उनके लिए बदलाव की प्रेरणा हुआ करते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में कानू बहुत विचलित थे। यह आत्महत्या (जिसपर भरोसा करने को जी नहीं चाहता) यह कहती है कि उनकी पीड़ा बहुत घनीभूत हो गयी होगी, जिसके चलते उन्होंने ऐसा किया होगा।
नक्सलबाड़ी आंदोलन की सभी तीन नायकों का अंत दुखी करता है। जंगल संथाल,मुठभेड़ में मारे गए थे। चारू मजूमदार, पुलिस की हिरासत में घुलते हुए मौत के पास गए। कानू एक ऐसे नायक हैं जिन्होंने एक लंबी आयु पायी और अपने विचारों व आंदोलन को बहकते हुए देखा। शायद इसीलिए कानू को नक्सलवाद शब्द से चिढ़ थी। वे इस शब्द का प्रयोग कभी नहीं करते थे। उनकी आंखें कहीं कुछ खोज रही थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि मुझे अफसोस इस बात का है कि I could not produce a communist party although I am honest from the beginning.यह सच्चाई कितने लोग कह पाते हैं। वे नौकरी छोड़कर 1950 में पार्टी में निकले थे। पर उन्हें जिस विकल्प की तलाश थी वह आखिरी तक न मिला। आज जब नक्सल आंदोलन एक अंधे मोड़पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, कानू की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि “किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।”
देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है।
कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं। आप देखें तो आखिरी दिनों तक वे सक्रिय दिखते हैं, सिंगुर में भूमि आंदोलन शुरू हुआ तो वे आंदोलनकारियों से मिलने जा पहुंचते हैं। जिस तरह के हालत आज देखे जा रहे हैं कनु दा के पास देखने को क्या बचा था। छत्रधर महतो और वामदलों की जंग के बीच जैसे हालात थे। उसे देखते हुए भी कुछ न कर पाने की पीड़ा शायद उन्हें कचोटती होगी। अब आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत हो चुकी है। नक्सलवाद का विकृत होता चेहरा लोकतंत्र के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा है कानू सान्याल का जाना विकल्प के अभाव की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है। इसे वृहत्तर संबंध में देखें तो देश के भीतर जैसी बेचैनी और बेकली देखी जा रही है वह आतंकित करने वाली हैं। आज जबकि बाजार और अमरीकी उपनिवेशवादी तंत्र की तेज आंधी में हम लगभग आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं तब कानू की याद हमें लड़ने और डटे रहने का हौसला तो दे ही सकती है। इस मौके पर कानू का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है जिसे भरने के लिए कोई नायक नजर नहीं आता।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक है)

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