मंगलवार, 16 जून 2009

आरएसएस के मुस्लिम प्रेम से उपजे कुछ सवाल


यह प्यार अचानक उमड़ा क्यूं

हां, सात जून को मैं रायपुर में ही था। एक चौंकानेवाली खबर अखबारों में थी। खबर थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन शहर में हैं और वे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नामक किसी संगठन के तीन दिवसीय आयोजन में भाग लेने के लिए आए हैं। खबर में बताया गया था कि रायपुर शहर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की बैठक 4 जून को हो चुकी है और अब एक प्रशिक्षण शिविर चल रहा है जिसमें देशभर के लगभग 215 लोग भाग ले रहे हैं जो लगभग 22 राज्यों से आए हुए थे। इस आयोजन के समापन के दिन राज्य की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, आरएसएस की ओर से इस काम को देखने वाले इंद्रेश कुमार भी सुदर्शन के साथ मंच पर थे।
हालांकि आरएसएस के बारे में जैसा सुना और बताया जाता है कि वह एक हिंदू संगठन है और मुसलमानों से दूरी बनाए रखने में ही उसे मजा आता है। यह भी माना जाता है कि संघ मुस्लिम विरोधी भी है। किंतु इस प्रकार की छवि रखनेवाले संगठन की ऐसी कोशिश की तो मीडिया में जोरदार चर्चा होनी चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखा। इस आयोजन की राष्ट्रीय मीडिया में किसी तरह की भी चर्चा नहीं हुयी। जबकि लोगों को यह जानने का हक है कि जब सुर्दशन जैसे कट्टर हिंदू नेता मुस्लिम समाज के साथ होते हैं तो उनके संवाद की भाषा क्या होती है, उनकी देहभाषा क्या होती है। आरएसएस के लिए ऐसा क्या जरूरी है कि वह मुसलमानों के बीच जाए और उनकी सुने या अपनी सुनाए। यह सवाल इसलिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है और हिंदू राष्ट्र के विचार में उसकी आस्था अविचल है। एक आरएसएस नेता कहते हैं हमने इसलिए खुद को हिंदू स्वंयसेवक संघ नहीं कहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहा। जब इस आयोजन के संयोजक डा. सलीम राज से इस अचानक पैदा हुयी मुहब्बत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि यह सच है कि आरएसएस के विरोधियों ने हमारी छवि मुस्लिम विरोधी बना दी है जबकि वास्तविकता यह नहीं है। सलीम राज मानते हैं कि उनसे देर तो हुयी है पर बहुत देर नहीं हुयी है।
मुस्लिम समाज और उसकी राजनीति के संकट पर बातचीत करते समय या तो हम इतनी संवेदनशीलता और संकोच से भर जाते हैं कि ‘सत्य’ दूर रह जाता है या फिर उपदेशक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं। हम इन विमर्शों में प्रायः मुस्लिम राजनीति को दिशाहीन, अवसरवादी, कौम की मूल समस्याओं को न समझने वाली आदि-आदि करार दे देते हैं। दरअसल यह प्रवृत्ति किसी भी संकट को अतिसरलीकृत करके देखने से उपजती है।मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैं, पर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्द, उनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र है, अतएव इसे हिंदू, मुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिए ‘जनता का एजेंडा’ किसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा, लेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती ? बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, गंदगी, पेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है।
सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के अर्द्धशती भीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है। कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो ‘जिन्नावादी असहजता’ है, उस पर उन्हें लगातार ‘भारतवादी’ होने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम समाज का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है। एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता है, वहीं दसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता ।भारतीय समाज में ही नहीं, हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआ, जिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर, नजीर अकबरवादी, अब्दुर्रहीम खानखाना, रसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी था, जिसनें ‘उपनिषद्’ का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी है, संवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थी, आज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है। सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि आज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, जो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेजी थे, मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए । आधुनिक संदर्भ में सैय्यद शहबुद्दीन का उदाहरण ताजा है, जिन्हें एक ईमानदार और उदार अधिकारी जानकार ही अटलबिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खींचा । लेकिन जब उन्होंने अपनी ‘मुस्लिम कांस्टिटुएंसी’ बनानी शुरु की तो वे खुद को ‘कट्टर मुस्लिम’ प्रोजेक्ट करने लगे । कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई है, लेकिन जामिया मिलिया में मचे धमाल में वे कट्टरपंथियों के साथ खड़े दिखे थे । मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैं, जहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है । मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिक, आर्थिक, समाज सुधार, शिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है । मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगी, समाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाही, सांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है । जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ा, लिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है ति भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । वैसे भी धार्मिक और जज्बाती सवालों पर लोगों को भड़काना तथा इस्तेमाल करना आसान होता है । गरीब और आम मुसलमान ही राजनीतिक षडयंत्रों में पिसता तथा तबाह होता है, जबकि उनका इस्तेमाल कर लोग ऊंची कुर्सियां प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें भूल जाते हैं । आरएसएस जैसे संगठन भी यदि यह मानने लगे हैं कि देश की प्रगति बिना मुस्लिम समाज को साथ लिए संभव नहीं है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। जैसा कि रायपुर सम्मेलन का निष्कर्ष है –शिक्षा और वतनपरस्ती ही मुस्लिम समाज की मुक्ति में सहायक हो सकते हैं। यह मान लेने में संकोच नहीं करना चाहिए कि आरएसएस इस पहल को यदि सच्चे दिल से कर रहा है तो इससे सही परिणाम भी दिखने लगेंगें। क्योंकि आरएसएस की निष्ठा और ईमानदारी पर शक उसके विरोधी भी नहीं करते। आरएसएस जैसा कह रहा है वैसा कर पाया तो भारतीय जनमानस में फैले असुरक्षा और अंधकार के बाद छंट सकते हैं। यही क्षण भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।

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