गुरुवार, 25 जून 2009

सप्रे संग्रहालय में जल जीवन और मीडिया पर गोष्ठी


पानी के सवाल पर सक्रियता दिखाए मीडिया
भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी का कहना है कि पानी के सवाल पर अब मीडिया को भी अपनी सक्रियता दिखानी होगी। उन्होंने भोपाल स्थित माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय में जल, जीवन और मीडिया विषय पर आयोजित संगोष्ठी में ये विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि मीडिया का जैसा विस्तार हुआ है उसे देखते हुए वह वह अपनी प्रभावी भूमिका से सरकार, प्रशासन, आमजनता तीनों का ध्यान खींच सकता है। कई पत्र समूह अब पानी के सवाल पर लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं इसे मीडिया का सकारात्मक कदम माना जाना चाहिए।


संजय द्विवेदी ने कहा कि उत्तर भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी समाज और उद्योग की बेरुखी ने काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में यमुना जैसी नदी किस तरह एक गंदे नाले में बदल गयी तो लखनऊ की गोमती का क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है।देश की नदियों का जल और उसकी चिंता हमें ही करनी होगी। मीडिया ने इस बड़ी चुनौती को समय रहते समझा है, यह बड़ी बात है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सवाल को मीडिया के नियंता अपनी प्राथमिक चिंताओं में शामिल करेंगें।


इस महत्वपूर्ण आयोजन में मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह, नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़, जनसंपर्क प्रमुख और लेखक मनोज श्रीवास्तव, नवदुनिया भोपाल के संपादक गिरीश उपाध्याय, विजयदत्त श्रीधर सहित अनेक पत्रकारों ने संबोधित किया।

बुधवार, 24 जून 2009

नई प्रौद्योगिकी से आया हिंदी लेखन में लोकतंत्र


साहित्य और मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जनअपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी शब्दों की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी है।

साहित्य की बात करते ही उसकी हमारी चेतना में कई नाम गूंजते हैं जो हिंदी के नायकों में थे, यह खड़ी बोली हिंदी के खड़े होने और संभलने के दिन थे। वे जो नायक थे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों ,माखनलाल चतुर्वेदी या माधवराव सप्रे, ये सिर्फ साहित्य के नायक नहीं थे, हिंदी समाज के भी नायक थे। इस दौर की हिंदी सिर्फ पत्रकारिता या साहित्य की हिंदी न होकर आंदोलन की भी हिंदी थी। शायद इसीलिए इस दौर के रचनाकार एक तरफ अपने साहित्य के माध्यम से एक श्रेष्ठ सृजन भी कर रहे थे तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को जगाने का काम भी कर रहे थे। इसी तरह इस दौर के साहित्यकार समाजसुधार और देशसेवा या भारत मुक्ति के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। तीन मोर्चों पर एक साथ जूझती यह पीढ़ी अगर अपने समय की सब तरह की चुनौतियों से जूझकर भी अपनी एक जगह बना पाई तो इसका कारण मात्र यही था कि हिंदी तब तक सरकारी भाषा नहीं हो सकी थी। वह जन-मन और आंदोलन की भाषा थी इसलिए उसमें रचा गया साहित्य किसी तरह की खास मनःस्थिति में लिखा गया साहित्य नहीं था। वह समय हिंदी के विकास का था और उसमें रचा गया साहित्य लोगों को प्रेरित करने का काम कर रहा था। उस समय के बेहद साधारण अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया। जबकि आज के अखबार ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने भी एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने ‘खास’ अखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। ‘जनसत्ता’ जैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। मुख्यधारा के मीडिया से साहित्य को लगभग बहिष्कृत सा कर दिया गया है। बाजार ने आंदोलन की जगह ले ली है। मास मीडिया के इस भटकाव का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जा रहा है। साहित्य में भी लोकप्रिय लेखन की चर्चा शुरू हो गयी है।

हिंदी साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसने आजादी के बाद अपनी धार खो दी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है।हिंदी का साहित्यिक जगत का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी का साहित्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करता था।

निर्बल का बल है संचार प्रौद्योगिकीः
बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने हिंदी की ताकत और उर्जा का विस्तार ही किया है। हिंदी साहित्य को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने और एक वैश्विक हिंदी समाज को खड़ा करने का काम नयी प्रौद्योगिकी कर रही है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-बुक्स का प्रचलन भी बढ़ा है और नयी पीढ़ी एक बार फिर पठनीयता की ओर लौटी है। हमारे पुस्तकालय खाली पड़े होंगे किंतु साइबर कैफै युवाओं से भरे-पड़े हैं। एक क्लिक से उन्हें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है। यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखनेवालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। साहित्य जगत की असल चुनौती इस पीढ़ी को केंद्र में रखकर कुछ रचने और काम करने की है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है। दुनिया के तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विवक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। हमारे सामने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने की चुनौती शेष है। यदि एक दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीख सकते हैं तो क्या मुश्किल है कि हिंदी में रचे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य से अन्य भाषा भाषियों में हिंदी के प्रति अनुराग न पैदा हो। वैश्विक स्तर भी आज हिंदी को सीखने-पढ़ने की बात कही जा रही है वह भले ही बाजार पर कब्जे के लिए हो किंतु इससे हिंदी का विस्तार तो हो रहा है। अमेरिका जैसे देशों में हिंदी के प्रति रूझान यही बताता है.।
दूसरी महत्वपूर्ण बात तकनीक को लेकर हो हिचक को लेकर है। यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लाग मुफ्त में ही बनाकर अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं अपनी गुणवत्ता से जीवित रहती हैं जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्धजीवी हो पाती हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लाग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। इस तरह बाजार की संस्कृति का विस्तारक होने की आरोपी होने के बावजूद आप इस माध्यम पर बाजार के खिलाफ, उसकी अपसंस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। इस मायने में यह बेहद लोकतांत्रिक माध्यम भी है। इसने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।

ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरतः
सही मायने में हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरत है जिससे वह इस माध्यम का ज्यादा से ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सके। यह प्रौद्योगिकी शायद इसीलिए निर्बल का बल भी कही जा सकती है। यह प्रौद्योगिकी उन शब्दों को मंच दे रही है जिन्हें बड़े नामों के मोह में फंसे संपादक ठुकरा रहे हैं। यह आपकी रचनाशीलता को एक आकार और वैश्विक विस्तार भी दे रही है। सही मायने में यह प्रौद्योगिकी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में है। इसका सही और रचनात्मक इस्तेमाल साहित्य के वैश्विक विस्तार और संबंधों की सघनता के लिए किया जा सकता है। रचनाकार को उसके अनुभव समृद्ध बनाते हैं। हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज किसी भी भाषा के लिए सहयोगी साबित हो सकता है। हिंदी की अपनी ताकत पूरी दुनिया में महसूसी जा रही है। हिंदी फिल्मों का वैश्विक बाजार इसका उदाहरण है। एक भाषा के तौर हिंदी का विस्तार संतोषजनक ही कहा जाएगा किंतु चिंता में डालने वाली बात यही है कि वह तेजी से बाजार की भाषा बन रही है। वह वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा तो बनी है किंतु साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वह पिछड़ रही है। इसे संभालने की जरूरत है। साहित्य के साथ आम हिंदी भाषी समाज का बहुत रिश्ता बचा नहीं है। ऐसे में तकनीक, बाजार या जिंदगी की जद्दोजहद में सिकुड़ आए समय को दोष देना ठीक नहीं होगा। नयी तकनीक ने हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को ताकतवर ही बनाया है क्योंकि तकनीक भाषा, भेद और राज्य की सीमाओं से परे है। हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा। हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके सचेतन प्रयास करने होंगें। हिंदी हर नए माध्यम के साथ चलने वाली भाषा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की यह ताकत ही है कि देश के सर्वाधिक बिकने वाले दस अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार नहीं है। ज्यादातर टीवी चैनल हिंदी या मिली जुली हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है में अपनी बात कहने को कहने को मजबूर हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। हिंदी की यह ताकत उसके उस आम आदमी की ताकत है जो आज भी 20 रूपए रोज पर अपनी जिंदगी जी रहा है। उस समाज को कोई तकनीक तोड़ नहीं सकती,कोई प्रौद्योगिकी तोड़ नहीं सकती। मेहनतकश लोगों की इस भाषा की इसी ताकत को महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद ने पहचान लिया था पर कुछ लोग जानकर भी इसे नजरंदाज करते हैं। हिंदी में आज एक बड़ा बाजार उपलब्ध है वह साबुन, शैंपो का है तो साहित्य का भी है। साहित्य की चुनौती यह भी है कि वह अपने को इस बाजार में खड़ा होने लायक बनाए। हिंदी का प्रकाशन जगत लगातार समृद्ध हो रहा है। इस फलते-फूलते प्रकाशन उद्योग का लेखक क्यों गरीब है यह भी एक बड़ा सवाल है। असल चुनौती यहीं है कि हिंदी समाज में किस तरह एक व्यवासायिक नजरिया पैदा किया जाए। क्या कारण है कि चेतन भगत तीन उपन्यास लिखकर अंग्रेजी बाजार में तो स्वीकृति पाते ही हैं ही हिंदी का बाजार भी उन्हें सिर माथे बिठा लेता है। उनकी किताबों के अनुवाद किसी लोकप्रिय हिंदी लेखक से ज्यादा बिक गए। हिंदी समाज को नए दौर के विषयों पर भी काम करना होगा। ऐसी कथावस्तु जिससे हिंदी जगत अनजाना है वह भी हिंदी में आए तो उसका स्वागत होगा। चेतन भगत की सफलता को इसी नजर से देखा जाना चाहिए।

इन सारी चुनौतियों के बीच भी हिंदी साहित्य को एक नया पाठक वर्ग नसीब हुआ है, जो पढ़ने के लिए आतुर है और प्रतिक्रिया भी कर रहा है। नई प्रौद्योगिकी ने इस तरह के विर्मशों के लिए मंच भी दिया है और स्पेस भी। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसी प्रौद्योगिकी ने हिंदी में एक तरह का लोकतंत्र भी विकसित किया है। यह हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को भी समर्थ करेगा जो अन्यान्य कारणों से उपेक्षा की शिकार रही हैं या होती आयी हैं।

मंगलवार, 23 जून 2009

आइए बनाएं एक पानीदार समाज


मीडिया भी सोचे पानी के सवाल पर
मीडिया का काम है लोकमंगल के लिए सतत सक्रिय रहना। पानी का सवाल भी एक ऐसा मुद्दा बना गया है जिस पर समाज, सरकार और मीडिया तीनों की सामूहिक सक्रियता जरूरी है। कहा गया है-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष,चून।


प्रकृति के साथ निरंतर छेड़छाड़ ने मनुष्यता को कई गंभीर खतरों के सामने खड़ा कर दिया है। देश की नदियां, ताल-तलैये, कुंए सब हमसे सवाल पूछ रहे हैं। हमारे ठूंठ होते गांव और जंगल हमारे सामने एक प्रश्न बनकर खड़े हैं। पर्यावरण के विनाश में लगी व्यवस्था और उद्योग हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। इस भयानक शोषण के फलित भी सामने आने लगे हैं। मानवता एक ऐसे गंभीर संकट को महसूस कर रही है और कहा जाने लगा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। बारह से पंद्रह रूपए में पानी खरीद रहे हम क्या कभी अपने आप से ये सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा पानी इतना महंगा क्यों है। जब हमारे शहर का नगर निगम जलकर में थोड़ी बढ़त करता है तो हम आंदोलित हो जाते हैं, राजनीतिक दल सड़क पर आ जाते हैं। लेकिन पंद्रह रूपए में एक लीटर पानी की खरीदी हमारे मन में कोई सवाल खड़ा नहीं करती। उदाहरण के लिए दिल्ली जननिगम की बात करें तो वह एक हजार लीटर पानी के लिए साढ़े तीन रूपए लेता है। यानि की तीन लीटर पानी के लिए एक पैसे से कुछ अधिक। यही पानी मिनरल वाटर की शकल में हमें तकरीबन बयालीस सौ गुना से भी ज्यादा पैसे का पड़ता है। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं। इसके खामोशी के चलते दुनिया में बोतलबंद पानी का कारोबार तेजी से उठ रहा है और 2004 में ही इसकी खपत दुनिया में 154 बिलियन लीटर तक पहुंच चुकी थी। इसमें भारत जैसे हिस्सा भी 5.1 बिलियन लीटर का है। यह कारोबार चालीस प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। आज भारत बोतलबंद पानी की खपत के मामले में दुनिया के दस शीर्ष देशों में शामिल है। लेकिन ये पानी क्या हमारी आम जनता की पहुंच में है। यह दुर्भाग्य है कि हमारे गांवों में मल्टीनेशनल कंपनियों के पेय पदार्थ पहुंच गए किंतु आजतक हम आम लोंगों को पीने का पानी सुलभ नहीं करा पाए। उस आदमी की स्थिति का अंदाजा लगाइए जो इन महंगी बोलतों में बंद पानी तक नहीं पहुंच सकता।पानी का विचार करते हुए हमें केंद्र में उन देश के कोई चौरासी करोड़ लोगों को रखना होगा जिनकी आय प्रतिदिन छः से बीस रूपए के बीच है। इस बीस रूपए रोज कमानेवाले आदमी की चिंता हमने आज नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। पानी का संघर्ष एक ऐसी शक्ल ले रहा है जहां लोग एक-दूसरे की जान लेने को आमादा हैं। भोपाल में ही पानी को लेकर इसी साल शहर में हत्याएं हो चुकी हैं।


पानी की चिंता आज सब प्रकार से मानवता की सेवा सबसे बड़ा काम है। आंकड़े चौंकानेवाले हैं कितु ये खतरे की गंभीरता का अहसास भी कराते हैं। भारत में सालाना 7 लाख, 83 हजार लोंगों की मौत खराब पानी पीने और साफ- सफाई न होने से हो जाती है। दूषित जल के चलते हर साल देश की अर्थव्यवस्था को करीब पांच अरब रूपए का नुकसान हो रहा है। देश के कई राज्यों के लोग आज भी दूषित जल पीने को मजबूर हैं क्योंकि यह उनकी मजबूरी भी है।


पानी को लेकर सरकार, समाज और मीडिया तीनों को सक्रिय होने की जरूरत है। आजादी के इतने सालों के बाद पानी का सवाल यदि आज और गंभीर होकर हमारे है तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं। पानी की सीमित उपलब्धता को लेकर हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने समाज के सामने इस चुनौती का क्या समाधान रखने जा रहे हैं।


मीडिया की जिम्मेदारीः
मीडिया का जैसा विस्तार हुआ है उसे देखते हुए उसके सर्वव्यापी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। मीडिया सरकार, प्रशासन और जनता सबके बीच एक ऐसा प्रभावी माध्यम है जो ऐसे मुद्दों पर अपनी खास दृष्टि को संप्रेषित कर सकता है। कुछ मीडिया समूहों ने पानी के सवाल पर जनता को जगाने का काम किया है। वह चेतना के स्तर पर भी है और कार्य के स्तर पर भी। ये पत्र समूह अब जनता को जगाने के साथ उनके घरों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने तक में मदद कर रहे हैं। इसी तरह भोपाल की सूखती झील की चिंता को जिस तरह भोपाल के अखबारों ने मुद्दा बनाया और लोगों को अभियान शामिल किया उसकी सराहना की जानी चाहिए। इसी तरह हाल मे नर्मदा को लेकर अमृतलाल वेगड़ से लेकर अनिल दवे तक के प्रयासों को इसी नजर से देखा जाना चाहिए। अपनी नदियों, तालाबों झीलों के प्रति जनता के मन में सम्मान की स्थापना एक बड़ा काम है जो बिना मीडिया के सहयोग से नहीं हो सकता।


उत्तर भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी समाज और उद्योग की बेरुखी ने काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में यमुना जैसी नदी किस तरह एक गंदे नाले में बदल गयी तो लखनऊ की गोमती का क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है।देश की नदियों का जल और उसकी चिंता हमें ही करनी होगी। मीडिया ने इस बड़ी चुनौती को समय रहते समझा है, यह बड़ी बात है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सवाल को मीडिया के नियंता अपनी प्राथमिक चिंताओं में शामिल करेंगें। ये कुछ बिंदु हैं जिनपर मीडिया निरंतर अभियान चलाकर पानी को बचाने में मददगार हो सकता है-


1.पानी का राष्ट्रीयकरण किया जाए और इसके लिए एक अभियान चलाया जाए।
2.छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी को एक पूंजीपति को बेचकर जो शुरूआत हुयी उसे दृष्टिगत रखते हुए नदी बेचने की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए।
3. उद्योगों के द्वारा निकला कचरा हमारी नदियों को नष्ट कर रहा, पर्यावरण को भी। उद्योग प्रायः प्रदूषणरोधी संयत्रों की स्थापना तो करते हैं पर बिजली के बिल के नाते उसका संचालन नहीं करते। उद्योगों की हैसियत के मुताबिक प्रत्येक उद्योग का प्रदूषणरोधी संयत्र का मीटर अलग हो और उसका न्यूनतम बिल तय किया जाए। इससे इसे चलाना उद्योगों की मजबूरी बन जाएगा।
4. केंद्र सरकार द्वारा नदियों को जोड़ने की योजना को तेज किया जाना चाहिए।
5. बोलतबंद पानी के उद्योग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
6. सार्वजनिक पेयजल व्यवस्था को दुरुस्त करने के सचेतन और निरंतर प्रयास किए जाने चाहिए।
7. गांवों में स्वजलधारा जैसी योजनाओं को तेजी से प्रचारित करना चाहिए।
8. परंपरागत जल श्रोतों की रक्षा की जानी चाहिए।
9. आम जनता में जल के संयमित उपयोग को लेकर लगातार जागरूकता के अभियान चलाए जाने चाहिए।
10. सार्वजनिक नलों से पानी के दुरूपयोग को रोकने के लिए मोहल्ला समितियां बनाई जा सकती हैं। जिनकी सकारात्मक पहल को मीडिया रेखांकित कर सकता है।
11.बचपन से पानी के महत्व और उसके संयमित उपयोग की शिक्षा नई पीढ़ी को देने के लिए मीडिया बच्चों के निकाले जा रहे अपने साप्ताहिक परिशिष्टों में इन मुद्दों पर बात कर सकता है। साथ स्कूलों में पानी के सवाल पर आयोजन करके नई पीढ़ी में संस्कार डाले जा सकते हैं।
12. वाटर हार्वेस्टिंग को नगरीय क्षेत्रों में अनिवार्य बनाया जाए, ताकि वर्षा के जल का सही उपयोग हो सके।
13.जनप्रबंधन की सरकारी योजनाओं की कड़ी निगरानी की जाए साथ ही बड़े बांधों के उपयोगों की समीक्षा भी की जाए।
15.गांवों में वर्षा के जल का सही प्रबंधन करने के लिए इस तरह के प्रयोग कर चुके विशेषज्ञों की मदद से इसका लोकव्यापीकरण किया जाए।
16. हर लगने वाले कृषि और किसान मेलों में जलप्रबंधन का मुद्दा भी शामिल किया जाए, ताकि फसलों और खाद के साथ पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों से भी अवगत हो सकें, ताकि वे सही जल प्रबंधन भी कर सकें।
17. विभिन्न धर्मगुरूओं और प्रवचनकारों से निवेदन किया जा सकता है कि वे अपने सार्वजनिक समारोहों और प्रवचनों में जलप्रबंधन को लेकर अपील जरूर करें। हर धर्म में पानी को लेकर सार्थक बातें कही गयी हैं उनका सहारा लेकर धर्मप्राण जनता में पानी का महत्व बताया जा सकता है।
18. केंद्र और राज्य सरकारें पानी को लेकर लघु फिल्में बना सकते हैं जिन्हें सिनेमाहालों में फिल्म के प्रसारम से पहले या मध्यांतर में दिखाया जा सकता है।
19. पारंपरिक मीडिया के प्रयोग से गांव-कस्बों तक यह संदेश पहुंचाया जा सकता है।
20. पत्रिकाओं के पानी को लेकर अंक निकाले जा सकते हैं जिनमें दुनिया भर पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों की जानकारी दी जा सकती है।
21.राज्यों के जनसंपर्क विभाग अपने नियमित विज्ञापनों में गर्मी और बारिश के दिनों में पानी के संदेश दे सकते हैं।


ऐसे अनेक विषय हो सकते हैं जिसके द्वारा हम जल के सवाल को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए समाज में जनचेतना फैला सकते हैं। यही रास्ता हमें बचाएगा और हमारे समाज को एक पानीदार समाज बनाएगा। पानीदार होना कोई साधारण बात नहीं है, क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं।

सोमवार, 22 जून 2009

मीडिया से छंट जायेंगे मंदी के बादल : रविकांत मित्तल


जनसंचार विभाग में आयोजित हुआ विभागाध्यक्ष दविंदर कौर उप्पल का विदाई समारोह
भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में विभाग की अध्यक्ष दविंदर कौर उप्पल का विदाई समारोह आयोजित किया गया। समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल उपस्थित थे। कार्यक्रम की शुरूआत विभाग के नवनियुक्त अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों के परिचय से की। इसके बाद विभाग के द्वितीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर के विद्यार्थियों ने मैडम उप्पल के साथ बिताये गये पलों को अपने शब्दों में व्यक्त किया।

कार्यक्रम में उपस्थित विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए श्री रविकांत मित्तल ने कहा कि मंदी के इस दौर में नौकरी पाने के लिए छात्रों को अधिक मेहनत की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि आजकल युवा मीडिया में नौकरी पाने के लिए शार्टकट रास्ता अपनाना चाहते हैं, लेकिन मेहनत का कोई विकल्प नहीं है। श्री मित्तल ने मंदी के इस दौर के बारे छात्रों से बातचीत करते हुए कहा जिस तरह से मंदी को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं वो सब कुछ ही दिन में खत्म हो जाएंगी। उन्होंने छात्रों से मेहनत करने और लगन के साथ अपने कार्य में लगे रहने की अपील की। मीडिया का जिस तरह सर्वव्यापी विस्तार हो रहा है उसमें अपार संभावनाएं छिपी हुयी हैं।

कार्यक्रम में विभाग के द्वितीय सेमेस्टर के छात्र शिवेन्द्र ने मैडम उप्पल के लिए ‘‘विदा‘‘ नामक कविता का पाठ भी किया। मैडम उप्पल ने विभाग के छात्रों के उज्जवल भविष्य की कामना की और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहने को कहा।

समारोह में दृश्य-श्रव्य अध्ययन केन्द्र के विभागाध्यक्ष MkW- श्रीकांत सिंह, जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष MkW- पवित्र श्रीवास्तव, पुस्तकालय प्रभारी आरती सारंग, MkW- अविनाश बाजपेयी, मोनिका वर्मा सहित विभाग के सभी विद्यार्थी उपस्थित थे।

मंगलवार, 16 जून 2009

आरएसएस के मुस्लिम प्रेम से उपजे कुछ सवाल


यह प्यार अचानक उमड़ा क्यूं

हां, सात जून को मैं रायपुर में ही था। एक चौंकानेवाली खबर अखबारों में थी। खबर थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन शहर में हैं और वे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नामक किसी संगठन के तीन दिवसीय आयोजन में भाग लेने के लिए आए हैं। खबर में बताया गया था कि रायपुर शहर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की बैठक 4 जून को हो चुकी है और अब एक प्रशिक्षण शिविर चल रहा है जिसमें देशभर के लगभग 215 लोग भाग ले रहे हैं जो लगभग 22 राज्यों से आए हुए थे। इस आयोजन के समापन के दिन राज्य की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, आरएसएस की ओर से इस काम को देखने वाले इंद्रेश कुमार भी सुदर्शन के साथ मंच पर थे।
हालांकि आरएसएस के बारे में जैसा सुना और बताया जाता है कि वह एक हिंदू संगठन है और मुसलमानों से दूरी बनाए रखने में ही उसे मजा आता है। यह भी माना जाता है कि संघ मुस्लिम विरोधी भी है। किंतु इस प्रकार की छवि रखनेवाले संगठन की ऐसी कोशिश की तो मीडिया में जोरदार चर्चा होनी चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखा। इस आयोजन की राष्ट्रीय मीडिया में किसी तरह की भी चर्चा नहीं हुयी। जबकि लोगों को यह जानने का हक है कि जब सुर्दशन जैसे कट्टर हिंदू नेता मुस्लिम समाज के साथ होते हैं तो उनके संवाद की भाषा क्या होती है, उनकी देहभाषा क्या होती है। आरएसएस के लिए ऐसा क्या जरूरी है कि वह मुसलमानों के बीच जाए और उनकी सुने या अपनी सुनाए। यह सवाल इसलिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है और हिंदू राष्ट्र के विचार में उसकी आस्था अविचल है। एक आरएसएस नेता कहते हैं हमने इसलिए खुद को हिंदू स्वंयसेवक संघ नहीं कहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहा। जब इस आयोजन के संयोजक डा. सलीम राज से इस अचानक पैदा हुयी मुहब्बत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि यह सच है कि आरएसएस के विरोधियों ने हमारी छवि मुस्लिम विरोधी बना दी है जबकि वास्तविकता यह नहीं है। सलीम राज मानते हैं कि उनसे देर तो हुयी है पर बहुत देर नहीं हुयी है।
मुस्लिम समाज और उसकी राजनीति के संकट पर बातचीत करते समय या तो हम इतनी संवेदनशीलता और संकोच से भर जाते हैं कि ‘सत्य’ दूर रह जाता है या फिर उपदेशक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं। हम इन विमर्शों में प्रायः मुस्लिम राजनीति को दिशाहीन, अवसरवादी, कौम की मूल समस्याओं को न समझने वाली आदि-आदि करार दे देते हैं। दरअसल यह प्रवृत्ति किसी भी संकट को अतिसरलीकृत करके देखने से उपजती है।मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैं, पर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्द, उनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र है, अतएव इसे हिंदू, मुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिए ‘जनता का एजेंडा’ किसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा, लेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती ? बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, गंदगी, पेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है।
सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के अर्द्धशती भीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है। कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो ‘जिन्नावादी असहजता’ है, उस पर उन्हें लगातार ‘भारतवादी’ होने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम समाज का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है। एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता है, वहीं दसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता ।भारतीय समाज में ही नहीं, हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआ, जिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर, नजीर अकबरवादी, अब्दुर्रहीम खानखाना, रसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी था, जिसनें ‘उपनिषद्’ का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी है, संवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थी, आज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है। सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि आज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, जो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेजी थे, मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए । आधुनिक संदर्भ में सैय्यद शहबुद्दीन का उदाहरण ताजा है, जिन्हें एक ईमानदार और उदार अधिकारी जानकार ही अटलबिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खींचा । लेकिन जब उन्होंने अपनी ‘मुस्लिम कांस्टिटुएंसी’ बनानी शुरु की तो वे खुद को ‘कट्टर मुस्लिम’ प्रोजेक्ट करने लगे । कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई है, लेकिन जामिया मिलिया में मचे धमाल में वे कट्टरपंथियों के साथ खड़े दिखे थे । मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैं, जहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है । मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिक, आर्थिक, समाज सुधार, शिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है । मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगी, समाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाही, सांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है । जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ा, लिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है ति भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । वैसे भी धार्मिक और जज्बाती सवालों पर लोगों को भड़काना तथा इस्तेमाल करना आसान होता है । गरीब और आम मुसलमान ही राजनीतिक षडयंत्रों में पिसता तथा तबाह होता है, जबकि उनका इस्तेमाल कर लोग ऊंची कुर्सियां प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें भूल जाते हैं । आरएसएस जैसे संगठन भी यदि यह मानने लगे हैं कि देश की प्रगति बिना मुस्लिम समाज को साथ लिए संभव नहीं है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। जैसा कि रायपुर सम्मेलन का निष्कर्ष है –शिक्षा और वतनपरस्ती ही मुस्लिम समाज की मुक्ति में सहायक हो सकते हैं। यह मान लेने में संकोच नहीं करना चाहिए कि आरएसएस इस पहल को यदि सच्चे दिल से कर रहा है तो इससे सही परिणाम भी दिखने लगेंगें। क्योंकि आरएसएस की निष्ठा और ईमानदारी पर शक उसके विरोधी भी नहीं करते। आरएसएस जैसा कह रहा है वैसा कर पाया तो भारतीय जनमानस में फैले असुरक्षा और अंधकार के बाद छंट सकते हैं। यही क्षण भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।

सोमवार, 1 जून 2009

संजय द्विवेदी पत्रकारिता विवि में जनसंचार के विभागाध्यक्ष बने

भोपाल। संजय द्विवेदी ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष का पदभार संभाल लिया है। संजय की राजनीतिक विश्लेषक एवं मीडिया विशेषज्ञ के तौर पर खास पहचान है। वे दैनिक भास्कर- भोपाल एवं बिलासपुर, हरिभूमि-रायपुर, नवभारत-मुंबई, इंडिया इन्फो डाट काम-मुंबई, स्वदेश-रायपुर एवं भोपाल, न्यूज चैनल – जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ आदि संस्थाओं में स्थानीय संपादक, समाचार संपादक, एडीटर इनपुट एवं एंकर, कंटेट अस्सिटेंट, उप संपादक जैसे महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। संजय इससे पहले भी अध्यापन का कार्य रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में रीडर के रूप में कर चुके हैं। भोपाल, मुंबई, रायपुर, बिलासपुर उनका कार्यक्षेत्र रहा है। सतत लेखन करने वाले संजय विभिन्न सांस्कृतिक संगठनों से जुडे हैं।
संजय ने काफी कुछ लिखा पढ़ा है जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- शावक (बाल कविता संग्रह - 1989), यादें सुरेन्द्र प्रताप सिंह (संपादन - 1997), इस सूचना समर में (लेख संग्रह - 2003), मत पूछ हुआ क्या-क्या (लेख संग्रह - 2003), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता (आलोचना - 2004), सुर्खियां (लेख संग्रह - 2007)। संजय कई तरह के पुरस्कारों से भी नवाजे जा चुके हैं, जो इस प्रकार हैं- म.गो.वैद्य स्मृति रजत पदक (माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा) भोपाल, मध्यप्रदेश- 1995, सृजन-सम्मान, रायपुर द्वारा आंचलिक पत्रकारिता के लिए धुन्नी दुबे सम्मान-2005, अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत सम्मान, भोपाल, मध्यप्रदेश- 2005, पं.प्रतापनारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान (भाऊराव देवरस न्यास, लखनऊ द्वारा) - 2006। संजय की वेबसाइट है
www.sanjaydwivedi.com और उनका ब्लाग है www.sanjayubach.blogspot.com, उनसे ई-मेल - 123dwivedi@gmail.com या उनके मोबाइल – 098935-98888 पर संपर्क किया जा सकता है। उनका डाक का पता हैः अध्यक्षः जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, विकास भवन, प्रेस काम्पलेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (मध्यप्रदेश)