बुधवार, 31 दिसंबर 2008

कश्मीरः जनादेश के बाद एक कठिन चुनौती


कश्मीर के चुनाव परिणाम आने शुरू ही हुए थे कि यह लगने लगा कि नेशनल कांफ्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही है और इतने में ही डा. फारूक अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया आ चुकी थी कि भाजपा का साथ किसी कीमत पर नहीं। जाहिर तौर पर डा. साहब ने तस्वीर का रूख भांप लिया था। जम्मू कश्मीर के चुनाव परिणाम जहां लोकतंत्र के प्रति जनता की आस्था के प्रगटीकरण का प्रतीक हैं वहीं ये परिणाम यह भी कह रहे हैं कि अब हमें आगे बढ़ने की जरूरत है। नेशनल कांफ्रेंस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद यह लगभग तय हो गया है कि कश्मीर में अब कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस की मिलीजुली सरकार बनने जा रही है। कांग्रेस और पीडीपी की मिलीजुली सरकार में कांग्रेस का अनुभव पीडीपी के साथ बहुत अच्छा नहीं रहा। ऐसे में यह तय है अगली सरकार में फारूख और कांग्रेस साथ खड़े होंगें।
जम्मू और कश्मीर के चुनावों को अन्य राज्यों के परिणामों की तरह निश्चित ही विश्लेषित नहीं किया जाना चाहिए। जिस तरह के परिणाम आए हैं वे अलग तरह की चिंताएं भी जताते हैं। जम्मू-कश्मीर का पूरा इलाका इन परिणामों से बंटा-बंटा नजर आया। जम्मू में जहां भाजपा ने बढ़त पाई वहीं घाटी में पीडीपी को ज्यादा सीटें मिली हैं। यह बात जाहिर करती है किस तरह एक प्रदेश में ही दो तरह के विचार सांस ले रहे हैं। जम्मू कश्मीर इसलिए हमारे राष्ट्र राज्य के लिए एक चुनौती की तरह है। हम लाख कहें पर कहीं न कहीं हम अपने भारतीय होने की संवेदना को यहां चोटिल होता हुए देखते हैं। कश्मीर का भविष्य कुछ भी हो यह हमारे राष्ट्र- राज्य के लिए एक ऐसी परीक्षा की तरह जिसमें सफलता से ही भारत के भविष्य का निर्धारण होगा। कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती । आजादी के पांच दशक बीत जाने के बाद भी लगता है, सूइयां रेकार्ड पर ठहर सी गयी हैं।
यह बात बुरी लगे पर मानिए कि पूरी कश्मीर घाटी में आज भारत की अपनी आवाज कहने और उठाने वाले लोग न्यूनतम हो गए हैं । आप सेना के भरोसे कितना कर सकते हैं, या जितना कर सकते हैं-कमोबेश घाटी उतनी ही देर तक ही आपके पास है। यहां वहां से पलायन कर चुकी हिंदू पंडितों की आबादी के बाद शेष बचे मुस्लिम समुदाय की नीयत पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना जरूर जोड़ना है कश्मीर में गहरा आए खतरे के पीछ सिर्फ उपेक्षा व शोषण नहीं है। ‘धर्म’ के जुनून एवं नशे में वहां के युवाओं को भटकाव के रास्ते पर डालने की योजनाबद्ध रणनीति ने भी हालात बदतर किए हैं, पाकिस्तान जैसे देश का पड़ोसी होना इस मामले में बदतरी का कारण बना । मूल ये सब स्थितियां चाहे वे भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक हों, मिलकर कश्मीर का चेहरा बदरंग करती हैं। लेकिन सिर्फ विकास व उपेक्षा को कश्मीर से उठती अलगावादी आवाजों का कारण मानना समस्या को अतिसरलीकृत करके देखना है। बंदूक से समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं, विकास नहीं आ सकता, लेकिन ‘इस्लाम का राज’ आ सकता है-समस्या के मूल में अंशतः सही, यह भावना जरूर है। अगर यह बात न होती तो पाकिस्तान के शासकों व दुनिया के जघन्यतम अपराधी लादेन की कश्मीरियों से क्या हमदर्दी थी ? भारत के खिलाफ कश्मीर की युवाशक्ति के हाथ में हथियार देने वाले निश्चय ही एक ‘धार्मिक बंधुत्व भाव व अपनापा’ जोड़कर एक कश्मीरी युवक को अपना बना लेते हैं। वहीं हम जो अनादिकाल से एक सांस्कृतिक परंपरा व भावनात्मक आदान-प्रदान से जुड़े हैं, अचानक कश्मीरियों को उनका शत्रु दिखने लगते हैं। लड़ाई यदि सिर्फ कश्मीर की, उसके विकास की, वहां के नौजवानों को काम दिलाने की थी तो वहां के कश्मीरी पंडित व सिखों का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर विवश क्यों किया गया ?
इन हालात में हुए चुनावों को हम लोकतंत्र की एक बड़ी सफलता जरूर मान रहे हैं पर यह सोचना भी जरूरी है कि हमारा राजनीतिक तंत्र और दल क्या कश्मीर की समस्या का समाधान चाहते हैं। क्या अमरनाथ बोर्ड के मामले को नाहक हवा देकर हमारे राजनीतिक दलों ने ही हालात को बदतर नहीं किया। राजनीतिक दल भी अंततः चुनावी लाभ के लिए उन्हीं चरमपंथियों की गोद में जा बैठते हैं जिनके खिलाफ हमारा देश एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहा है।आज मुंबई हमलों के बाद भारत पाक के रिश्ते जिस मुकाम पर हैं,यह बात भी चिंता में डालती है। कश्मीर के सवाल सिर्फ शोषण, उपेक्षा, उत्पीड़न और बेरोजगारी के सवाल हैं यह मानना और कहना दोनों वास्तविकता से मुंह चुराना है। राज्य में बनने वाली सरकार इन प्रश्नों पर जूझे और सिर्फ यह बताने के लिए न हों कि दुनिया में हमें यह बताना है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं और कश्मीर में हमारे पास एक चुनी हुई सरकार है। इतना कहने और बताने में विश्वमंच पर सफल रहे हैं। कश्मीर की नई सरकार को पुरानी भूलों से सबक लेते हुए प्रदेश के सभी क्षेत्रों के साथ समान व्यवहार रखना होगा। ताकि लद्दाख, लेह या जम्मू की जनता अपने को उपेक्षित महसूस न करे। कश्मीरी पंडितों की घर वापसी या आबादी के संतुलन के पूर्व सैनिकों को समस्याग्रस्त नगरों में बसाना एक समाधान हो सकता है। कश्मीरी युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी।

समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए केंद्र की सरकार चाहे तो कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । यही बात कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘शिकारों’ पर फिर हंसी-खुशी और जिंदगी को लौटा सकती है। हवा से बारुद की गंध को कम कर सकती है और फिजां में खुशबू घोल सकती है। अब जबकि इस चुनाव ने पाक सहित सारी दुनिया को एक संदेश दे दिया है तो हमें भी कश्मीर की वादियों में स्थाई शांति के लिए निर्णायक पहल करनी ही चाहिए। फिलहाल तो कश्मीर की नई बनने जा रही सरकार को और वहां आतंकवाद के खिलाफ लड़कर लोकतंत्र में आस्था जता रही जनता को शुभकामनाओं के अलावा क्या दिया जा सकता है।

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