बुधवार, 24 दिसंबर 2008

जोगी जीते, जोगी हारे

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में जैसी चिंताएं है वैसी कभी नहीं देखी गईं। यह पहली बार है जब पिछले पांच सालों में श्रीमती सोनिया गांधी ने यह माना है कि उनकी पार्टी राज्य में फैली गुटबाजी के चलते मैदान हार गई। सोनिया का यह बयान सही अर्थों में एक ऐसा बयान है जो राज्य कांग्रेस की दुखती रग को छेड़ गया है। सोनिया गांधी का बयान एक ऐसे समय में आया है जब कांग्रेस के पास हारे को हरिनाम करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। राजनीति के पंडित इसीलिए कहते हैं- कांग्रेस को कोई औऱ नहीं,कांग्रेस खुद को ही हराती है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इस बार यह जुमला सच होता नजर आया। कांग्रेस के दिग्गज एक होने का अभिनय जरूर करते नजर आए पर वे जनता को यह भरोसा नहीं दिला पाए कि – हम साथ-साथ हैं। यह ऐसा समय था जिसे कांग्रेस अपने पक्ष में कर सकती थी लेकिन आपसी जंग ने उसे फिलहाल पांच साल के लिए विपक्ष में बैठा दिया है।


पूरे पांच साल कांग्रेस आपसी विवादों से जूझती रही। आलाकमान रोज प्रभारी बदलता रहा, जो आकर एकता का पाठ पढ़ाते रहे किंतु कांग्रेस के चतुरसुजान नेता उस सत्ता की आस में जंग कर कर रहे थे जो उनसे कोसों दूर थी। खेमों की मोर्चेबंदी में माहिर कांग्रेसियों में यह जंग अब भी रूकी नहीं है ,जबकि कांग्रेस एक बार फिर विपक्ष में बैठ चुकी है। बात उपचुनाव के रूप में राज्य में हुए सेमीफायनल की रही हो या फिर फायनल के रूप में हुए विधानसभा चुनावों की, कांग्रेस की आपसी लड़ाई हर जगह नजर आई। शायद इसी का परिणाम था कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा, नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, उपनेता प्रतिपक्ष भूपेश बधेल तक को हार का मुंह देखना पड़ा।
विधानसभा चुनाव-2003 में करारी मात के बाद लोकसभा के चुनावों में भी कांग्रेस राज्य की 11 लोकसभा सीटों में सिर्फ एक पर चुनाव जीत सकी। इसके बाद हुए स्थानीय निकाय, पंचायत, मंडी, सहकारिता के चुनावों में भी उसकी खास उपस्थिति नहीं रही। हां बाद में कोटा उपचुनाव और राजनांदगांव लोकसभा का उपचुनाव जीत कर कांग्रेस को एक मौका जरूर मिला कि वह भाजपा को घेर सकती है। यह सोचने का विषय है कि कांग्रेस के बजाए उपचुनावों की इस पराजय से भाजपा ने सबक लिया। भाजपा ने अपनी चुनावी तैयारियां शुरू कर दीं, संगठन पर ध्यान देना शुरू किया। किंतु कांग्रेस फिर उन्हीं लड़ाइयों में उतर गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए चरणदास महंत अपनी कार्यकारिणी तक नहीं बना पाए। बाद में उन्हें पदावनत कर कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया और धनेंद्र साहू अध्यक्ष बनाए गए। ऐसा पहली बार हुआ कि एक छोटे से राज्य में कांग्रेस के तीन अध्यक्ष बना दिए गए। धनेंद्र अध्यक्ष और महंत के साथ सत्यनारायण शर्मा कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए। यह सोशल इंजीनियरिंग भी कांग्रेस को उबार नहीं पाई। ये तीन अध्यक्ष मिलकर भी कार्यकारिणी नहीं बना सके। उपचुनावों में मिली जीत को कांग्रेस की जोगी खेमे की जीत माना गया किंतु इस झटके से भाजपा जाग उठी। अपना किला बचाए रखने के लिए भाजपा ने किलेबंदी शुरु कर दी। आलाकमान ने कांग्रेस की गुटबाजी को देखने के बाद भी आंखें मूंद रखी थीं। आलाकमान ने इस लाइलाज बीमारी को खत्म करने के कोई उपाय नहीं किए।


गुटबाजी का जख्म नासूर में बदलने लगा था। इस बीच मालखरौदा,खैरागढ़ और केशकाल के उपचुनाव जीतकर भाजपा आत्मविश्वास हासिल कर चुकी थी। कांग्रेस का विभाजन एक बार फिर साफ नजर आ गया था। उसके बाद सारे प्रयोग कर कांग्रेस अंततः सामूहिक नेतृत्व में मैदान में उतरी। यह दिखावटी एकता काम नहीं आई। दो रूपए किलो चावल का नारा भी चल नहीं पाया। रमन सिंह के सौम्य चेहरे, चावल और भाजपा की सामूहिक एकता को जनता ने सर माथे बिठाया। कांग्रेस ने नेता न घोषित न करने की बात कही थी लेकिन भाजपा ने जिस तरह अजीत जोगी पर हमला बोलकर उन्हें चुनावी प्रचार के केंद्र में ला दिया उसने अंततः शहरी मध्यवर्ग में जोगी का एक अज्ञात भय पैदा कर दिया। जिससे शहरी इलाकों में भाजपा को रिस्पांस मिला। इसी तरह आदिवासी इलाकों में कांग्रेस के बागियों ने माहौल बिगाड़ा,तो वहीं चावल का जादू भी चलता दिखा। खासकर बस्तर के इलाके से जहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया और 12 में 11 सीटें भाजपा को मिलीं ।


चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी नेता भले ही घोषित न किए गए हों, चुनाव अभियान उन्हीं पर केंद्रित था। परिणामों ने भी यह साबित किया कि चुनाव जीते ज्यादातर विधायक जोगी समर्थक ही हैं। जोगी और उनकी पत्नी भी चुनाव जीते। अजीत जोगी अपने क्षेत्र मरवाही से राज्य में सबसे ज्यादा वोटों से जीते। यह एक बात साबित करती है कि कांग्रेस जितनी जीती है वह अजीत जोगी है और जहां हारी है उसके मूल में भी कहीं न कहीं अजीत जोगी ही हैं। यह अकारण नहीं है खुद की सीट भी न जीत सकने वाले कांग्रेसी दिग्गज अपनी हार के लिए जोगी को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। टिकट वितरण में जोगी की जितनी चली उसके परिणाम प्रायः पक्ष में आए हैं। एनसीपी के साथ गठबंधन का जोगी ने विरोध किया था, एनसीपी को गठबंधन मिली तीनों सीटें वह हार गयी है। कुल मिलाकर यह हार और जीत दोनों जोगी की ही मानी जानी चाहिए। निश्चय ही यह कांग्रेस के लिए चिंता का एक बड़ा कारण है। बस्तर का वह इलाका जिसपर कांग्रेस सदैव भरोसा करती आयी है। इस इलाके से भी कांग्रेस को निराशा ही हाथ लगी है। बिलासपुर जिले से पिछली बार कांग्रेस को सात सीटें मिली थीं इस बार उस सिर्फ तीन सीटें मिली हैं। जाहिर तौर पर कांग्रेस इस समय राज्य में एक बड़े संकट से गुजर रही है। नेता प्रतिपक्ष के चयन में भी इच्छा के बावजूद अजीत जोगी नेता नहीं बन सके। इससे कांग्रेस के भीतर का मतभेद एक बार फिर उजागर हुआ है। बावजूद इसके राज्य की राज्य की राजनीति में अजीत जोगी को चुका हुआ मान लेना एक भारी भूल होगी। अब जबकि लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं कांग्रेस की चुनौती राज्य से अपनी सीटें बढ़ाने की है किंतु पार्टी में जिस तरह का यादवी युध्द छिड़ा हुआ है उसमें उसकी उम्मीदों पर फिलहाल तो ग्रहण हैं ही।

1 टिप्पणी:

  1. सर
    बिल्कुल सही कि छत्तीसगढ़ में जोगी जीते भी और हारे भी... क्या यह कहा जा सकता है कि प्रदेश में कांग्रेस का जोगी के बिना अस्तित्व नहीं हो सकता है.... या बिना जोगी की ताकत को कम किए बिना पार्टी खड़ी नहीं हो सकती... क्योंकि यह बात भी जगजाहिर है कि कांग्रेस के तीनों अध्यक्ष और दिग्गजों की हार में जोगी की अहम भूमिका है....

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