मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

क्यों डूबी कांग्रेस, क्यों जीती भाजपा



छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों ने एक बार फिर भाजपा को मुस्कराने का मौका दे दिया है। राज्य की 90 विधानसभा सीटों में 50 पर जीत दर्ज कराकर भाजपा ने एक बार फिर 2003 का इतिहास दुहरा दिया है। 2003 के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को इतनी ही सीटें मिली थीं। ऐसे में जब सत्ताविरोधी रूझानों से देश भर में सरकारें धराशाही हो रहीं हैं औऱ उनके मत प्रतिशत में कमी आ रही है, भाजपा का सीटें कायम रखना और अपने वोट बढ़ाना साधारण बात नहीं है। वहीं कांग्रेस का इस हार को पचा पाना आसान नहीं है। इस चुनाव में उसके दिग्गजों का चुनाव हारना जहां बड़ी घटना है वहीं उसकी गुटबाजी के सवाल को सोनिया गांधी ने भी हार का कारण बता दिया। यह एक ऐसी बात है जिसके लिए कांग्रेस के पास मुंह छिपाने के अलावा कोई चारा नहीं है। भाजपा के पांच सालों का कार्यकाल जैसा भी रहा हो किंतु कांग्रेस एक मजबूत विपक्ष के रूप में कभी नजर नहीं आई।

चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा जितनी सधी हुयी रणनीति, प्रबंधन और कुशलता से सामने आई कांग्रेस उससे कोसों दूर थी। भाजपा के पास रमन सिंह के रूप में एक ऐसा चेहरा था जो उम्मीदें जगाता दिखता था तो कांग्रेस इस चुनाव में नायक विहीन थी। अजीत जोगी जो सत्ता के सबसे करीब नजर आते थे, शहरी मध्यवर्ग के मन में अज्ञात भय जगाते थे, जिससे भाजपा की राह आसान हुई। भाजपा ने भी पूरे प्रचार अभियान के दौरान जोगी पर ही हमले किए। भाजपा के रविशंकर प्रसाद जैसे नेता भी जोगी पर हमला करने का लोभसंवरण नहीं कर पाए। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे मुंह मोड़ना कठिन है। कांग्रेस के पास दरअसल जोगी को छोड़कर कुछ भी नहीं था। इसलिए देखें तो जोगी ही जीते और जोगी ही हारे। जोगी जहां राज्य में सर्वाधिक मतों से अपने इलाके मरवाही से जीते वहीं उनकी धर्मपत्नी रेणु जोगी भी कोटा से जीतीं। लेकिन जोगी विरोधी सारे दिग्गज जिनके हाथ में कांग्रेस संगठन और विधायक दल की कमान थी चुनाव हार गए। जिनमें कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, उपनेता प्रतिपक्ष भूपेश बधेल, कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा शामिल हैं। इतना ही नहीं दिग्गज कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा के बेटे अऱूण वोरा और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविद नेताम की बेटी डा. प्रीति नेताम भी चुनाव हार गए । यह परिदृश्य कांग्रेस के लिए सदमे से कम नहीं था। सोनिया गांधी ने शायद इन्हीं हालात के मद्देनजर यह कहा कि कांग्रेस गुटबाजी की वजह से हारी। आज हालात यह हैं कि कांग्रेस में सिर फुटौव्वल मची हुयी। लगता तो यही हैं कि कांग्रेस को हाल-फिलहाल संभलने का मौका नहीं मिलेगा।

भाजपा के आला रणनीतिकारों ने कांग्रेस जैसी अनुभवी पार्टी को राज्य में पसीने ला दिए। भाजपा की कुशल रणनीति में ही उसकी कामयाबी छिपी हुयी है। चुनाव के काफी पहले भाजपा के रणनीतिकारों ने राज्य में डेरा डाल दिया था। वहीं कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से मोर्चे पर लगाए गए नारायण सामी, बीके हरिप्रसाद और इरशाद कुरैशी न तो गुटबाजी पर लगाम लगा पाए न ही कुशल रणनीति बना सके। इसके मुकाबले भाजपा ने साल भर पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। चुनावी व्युह रचना का जिम्मा उठाया भाजपा दिग्गज सौदान सिंह ने। वे पार्टी के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री भी हैं। उन्होंने रणनीति के तहत पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद औऱ सांसद धर्मेद्र प्रधान को राज्य की बागडोर सौंप दी। इसके साथ ही डा. रमन सिंह और उनके सहयोगी भी संगठन को अपेक्षित सहयोग करते रहे। टीम वर्क की यह जीत अध्ययन का विषय है। जाहिर तौर पर संगठन को पीछे से आरएसएस की भी मदद मिलती रही। रणनीति की शुरूआत हुयी बूथ मैनेजमेंट से, जिसके लिए मजाक में छत्तीसगढ़ के कांग्रेस विधायक कुलदीप जुनेजा कहते हैं कि भाजपा वालों को बूथ लूटने की ट्रेनिंग दी जाती है। यही बूथ मैनेजमेंट भाजपा की असल ताकत है। बावजूद इसके जहां जनमत ही खिलाफ हो वहां बूथ मैनेजमेंट काम नहीं आते किंतु ये माहौल को बदलने ,जीत-हार के अंतर को कम करने का काम जरूर करते हैं।

पार्टी ने कोटा का विधानसभा चुनाव हार कर जो झटका खाया वह भाजपा के काम आया। कोटा विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस की डा. रेणु जोगी विजयी हुयी थीं। पर चुनाव एक टर्निंग प्वाइंट था। इसी के बाद रणनीति के तहत दो माह के भीतर राज्य में 20 हजार से ज्यादा शक्तिकेंद्र बनाए गए। प्रत्येक शक्तिकेंद्र पर भाजपा के 15-15 नौजवान तैनात किए जाने लगे। उन्हें बाकायदा प्रशिक्षित किया गया। यह काम आया। लगातार बैठकों से सत्ता विरोधी रूझान और कार्यकर्ताओं का असंतोष संभालने में भाजपा ने सफलता पायी। इस बीच लगातार सर्वेक्षणों से भाजपा ने अपनी रणनीति में लगातार बदलाव किया। वर्तमान विधायकों का टिकट काटना इसी रणनीति का हिस्सा था, जिसे मोदी फार्मूले का नाम दिया गया। यह रणनीति बनी कि चुनाव सकारात्मक मुद्दों पर ही लड़े जाएंगें। बस्तर के लिए खास रणनीति बनी। बस्तर की चुनावी मैराथन में ऐसे लोग मैदान में उतारे गए जो सामाजिक रुप से ज्यादा पहचाने जाते थे। राजनीतिक पहचान पर सामाजिक पहचान भारी पड़ी। चावल का मुद्दा भी इसी पहल से जुड़ा। यह काम भी आया। चुनाव अभियान की कारपोरेट बांबिंग काम आयी। अजीत जोगी निशाने पर रहे। कांग्रेस के न चाहते हुए भी अजीत जोगी सीएम के सबसे बड़े उम्मीदवार के रूप में उभरे। यह भाजपाई रणनीति की सफलता ही थी। यह कारक शहरों में भाजपा की बड़ी सफलता का कारण बना।

भाजपा ने तीन रूपए किलो चावल और 25 पैसे किलो नमक का नारा देकर एक भरोसा कायम किया था। इसके विपरीत कांग्रेस ने भी दबाव में आकर दो रूपए किलो चावल देने की बात कही, भाजपा ने कांग्रेस की इस घोषणा के बाद अंत्योदय कार्डों पर एक रूपया किलो चावल और मुफ्त नमक देने की बात कही। परिणाम बताते हैं जनता ने भाजपा के वायदे को ज्यादा विश्वसनीय माना। ऐसे में भाजपा को बस्तर की 12 सीटों में 11 सीटें मिलीं तो यह साधारण सफलता नहीं है। बस्तर इलाका कभी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था, वहां से भाजपा की यह जीत बहुत कुछ कहती है। इसी तरह बड़े राजनीतिक सवालों पर कांग्रेस का भ्रम भी उसे भारी पड़ा, नक्सलवाद और सलवा जुडूम के मुद्दे पर कांग्रेस की खामोशी उसे भारी पड़ी। यहां तक की बीजापुर और दंतेवाड़ा जैसे घुर नक्सल प्रभावित इलाकों से कांग्रेस दिग्गजों के पांव उखड़ गए, जहां भाजपा के नए नवेले युवाओं ने जीत दर्ज कराई। ऐसे में कांग्रेस के लिए यह समय आत्ममंथन का है। उसे अपने संगठनात्मक ढांचे को चुस्त बनाते हुए काम करना होगा। छत्तीसगढ़ का सबक इसलिए भी महत्तवपूर्ण है क्योंकि संयुक्त मध्यप्रदेश में रहते हुए भी कांग्रेस की इस इलाके में कभी इतनी दुर्गति नहीं हुयी। बल्कि इस इलाके से भारी बहुमत लेकर ही मप्र में कांग्रेस सरकार बनाती रही। कांग्रेस के लिए यह इलाका एक चुनौती बनकर सामने है। चुनौती इसलिए भी गहरी है क्योंकि बसपा जैसे दलों की पदचाप भी इन इलाकों में सुनाई देने लगी है।

1 टिप्पणी:

  1. इसमें कोई संदेह नहीं है कि बीजेपी ने चुनाव में बेहतर मैंनेजमेंट की बदौलत बड़ी सफलता पाई... लेकिन एक बात और महत्वपूर्ण है जिसमें बीजेपी को कांग्रेस को मिस मैंनेजमेंट को कारण भी खासा फायदा हुआ है.... 2003 के चुनाव में कांग्रेस के पास 33 सीटें थी... इस चुनाव में पार्टी कों 37 सीटें मिली... जाहिर है कि कांग्रेस फायदे में रही... सही मायने में कहें तो कांग्रेस ने जीत को गंवा दिया... छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में 4-5 सीटें के अंतर से सरकार का खेल बनाया बिगाड़ा जा सकता है... कांग्रेस के दिग्गज चुनाव नहीं हारे होते तो निश्चित रूप से परिस्थितियां कुछ और होतीं...

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