गुरुवार, 27 नवंबर 2008

आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का समय


अब तो देश की राजनीति को शर्म आ ही जानी चाहिए। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में हुई घटनाएं भारतीय राजनीति और शासन पर एक ऐसा तमाचा है जिसकी गूंज काफी दिनों तक सुनाई देगी। आखिर कब जागेंगें हम और कम से कम ऐसे सवालों पर भी एक राय बना सकेंगें। राजनीति जिस तरह आतंकवाद के सवाल पर विभाजित नजर आती है उस पर कोई भी देशवासी सिर्फ शर्मसार हो सकता है। हमारे राजनेताओं को यह सोचना होगा कि आखिर वे अपने छुद्र स्वार्थों के लिए कब तक देश की जनता और हमारे पुलिस-सैन्य बलों की शहादत लेते रहेंगें।


11 सितंबर,2001 को अमरीका में हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमरीकी राजनीति के सबक सीखने लायक हैं। अमरीका ने जिस तरह के प्रबंध किए उससे वह तमाम ज्ञात- अज्ञात खतरों से बच सका। जाहिर तौर पर अमरीका को आदर्श मानने वाले हमारे राजनेता किस तरह की राजनीति कर रहे हैं। वे देश की जनता के अमन चैन से क्यों खेल रहे हैं। हमें सोचना होगा कि राजनीति अगर लोंगों को जिंदगी जीने की आजादी भी नहीं दे सकती है तो इस लोकतंत्र के मायने क्या हैं। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। किंतु हमारी राजनीति ने लोकलाज की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि आने वाले समय में भी हम जनता को कोई राहत दे पाएंगें। राजनीति की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह है कि मुंबई धमाकों में हमारे जांबांज पुलिस अफसरों और आम जनता की शहादत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। शायद बहुत से खतरों से मुकाबिल देश और उसकी नपुंसक राजनीति ने इसी तरह जीने का ढंग सीख लिया है। क्या सरकारें इस घटना से कोई सबक ले पाएंगीं यह एक बड़ा सवाल है। आतंकवाद का यह नंगा नाच जो दिन प्रतिदिन विकराल रूप लेता जा रहा है उससे मुंह मोड़ना एक हमारे राष्ट्र-राज्य की अस्मिता के लिए बहुत चिंता की बात है। इस घटना के बाद तो केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के नियंताओं के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए। नरसंहार की इस घटना के लिए जितने जिम्मेदार आतंकवादी हैं उतनी ही जिम्मेदार हमारी राजनीति भी है जिसकी कायरता ने आतंकियों के हौसले बढ़ा रखे हैं। वे राजनेता जो सिमी की पैरवी में खड़े हैं, जो लगातार कुछ वोटों की लालच में इस राष्ट्र और राज्य को खतरे के सामने छोड़कर मुस्करा रहे हैं। सच कहें तो वोट बैंक की राजनीति ने हमारी नैतिकता, देशप्रेम और निष्ठा की बलि ले ली है।
हर आतंकी वारदात के बाद एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो जाती है जो हमें समस्या के समाधान के लिए प्रेरित नहीं कर पाती। देश बंटा हुआ नजर आता है। टुकड़ों में बंटा देश इस हालात में किस तरह दुनिया का सामना कर पाएगा। भारत यदि एक आपराधिक राज्य के रूप में, आतंकवादी ताकतों के पनाहगाह के रूप में चिंहित हो गया तो हम विश्व के सामने क्या मुंह लेकर जाएंगें। देश के तमाम हिस्सों में आतंकवादी और अतिवादी आंदोलन पल रहे हैं, लेकिन जब हम अपने महानगरों को नहीं बचा पा रहे हैं तो जंगलों- गांवो में पनप रहे नक्सलवाद या अन्य अतिवादी समूहों का सामना कैसे करेंगें। मुंबई की घटना एक ऐसी मिसाल है जिस पर कोई भी देश सिर्फ शर्मसार हो सकता है। यह हमारे विकृत हो चुके समय की ऐसी बानगी है जिसे हमने स्वयं ही आमंत्रित किया है। यह बात साबित करती है हमने अपनी आजादी और उसकी कीमत को नहीं समझा है। देश के करोंडो़ लोगों की जानमाल हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती। आतंकवादी जिस तरह से भारत को बंधक बनाकर कहीं भी किसी तरह की घटना को अंजाम दे रहे हैं वह हमारी कायरता का ही फलित है। देश के लोग जो अपनी बेहतर और सर्वश्रेष्ठ क्षमता का प्रर्दशन करते हुए इसके विकास में अपना योगदान दे रहे हैं उन्हें संरक्षण देने के बजाए हमारी सरकारों ने उनके शांति से जीने के अधिकार को भी संकट में डाल रखा है। इससे देश के सामने चिंता के बादल गहरे हो गए हैं। हमारी राजनीति की यह भीरूता देश पर भारी पड़ रही है। देश की प्रगति और विकास के सपने इसी आतंकवाद के चलते दफन हो रहे हैं। आम हिंदुस्तानी आज खून के आंसू रो रहा है, आतंकवाद की बलि चढ़ रहे लोग हमारे लिए एक ऐसा सवाल हैं जो लगातार हमें रूलाते रहेंगे। लेकिन क्या हमारी बेशर्म, बेबस, कायर और लालची राजनीति इन सवालों से टकराने का साहस रखती है।