सोमवार, 21 अप्रैल 2008

सदके इन मासूम तर्कों के

वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं। लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में, अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा दी जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते।

छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने पहली बार मुस्कराने का मौका दिया है। उन्होंने रायपुर में छत्तीसगढ़ सरकार की आलोचना कर लंबे समय से चली आ रही कांग्रेसियों की मुराद पूरी कर दी है। होता यह रहा है कि केंद्र सरकार के मंत्री राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहे हैं। राज्य में आने वाले लगभग हर मंत्री ने जब भी मौका मिला राज्य सरकार के कामकाज की तारीफ ही की। श्री प्रकाश जायसवाल ने नक्सल मामले पर रमन सरकार को नाकाम बताते हुए कहा कि छ: महीने बाद जब राज्य में कांग्रेस की सरकार होगी, तो वह ही नक्सलियों से निपटेगी। जाहिर है केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का यह बयान राज्य सरकार की तार्किक आलोचना कम, चुनावी बयान ज्यादा है। चुनाव निकट आते देख एक सच्चो कांग्रेसी होने के नाते उनका जो फर्ज है, उसे उन्होंने निभाया है। यह सिर्फ़ संदर्भ के लिए कि पिछले महीने जब श्रीप्रकाश जायसवाल के 'बास केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल रायपुर प्रवास पर आए थे तो उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

गृह राज्यमंत्री ने नक्सलवाद के मुद्दे पर राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया, तो इसके कोई बहुत मायने नहीं हैं। क्योंकि नक्सलवाद के खिलाफ यह पहली सरकार है, जो इतनी प्रखरता के साथ हर मोर्चे पर जूझ रही है। सिर्फ़ बढ़ती नक्सली घटनाओं का जिक्र न करें, तो राज्य सरकार की सोच नक्सलियों के खिलाफ ही रही है। डा. रमन सिंह की सरकार की इस अर्थ में सराहना ही की जानी चाहिए कि उसने राजकाज संभालने के पहले दिन से ही नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबध्दता का ऐलान कर दिया था। राजनैतिक लाभ के लिए तमाम पार्टियां नक्सलियों की मदद और हिमायत करती आई हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। इन आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग डा. रमन सिंह की सरकार ने पहली बार नक्सलियों को उनके गढ़ में चुनौती देने का हौसला दिखाया है। राज्य सरकार की यह प्रतिबध्दता उस समय और मुखर रूप में सामने आई, जब श्री ओपी राठौर राज्य के पुलिस महानिदेशक बनाए गए। डा. रमन सिंह और श्री राठौर की संयुक्त कोशिशों से पहली बार नक्सलवाद के खिलाफ गंभीर पहल देखने में आई। वर्तमान डीजीपी विश्वरंजन की कोशिशों को भी उसी दिशा में देखा जाना चाहिए।

होता यह रहा है कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसे को हजम करने की कोशिशों से ज्यादा प्रयास कभी नहीं दिखे। पहली बार नक्सलियों को वैचारिक और मैदानी दोनों मोर्चों पर शिकस्त देने के प्रयास शुरू हुए हैं। यह अकारण नहीं है कि सलवा जुड़ूम का आंदोलन तो पूरी दुनिया में कुछ बुध्दिजीवियों के चलते निंदा और आलोचना का केंद्र बन गया किंतु नक्सली हिंसा को नाजायज बताने का साहस ये बुध्दिवादी नहीं पाल पाए। जब युध्द होते हैं, तो कुछ लोग अकारण ही उसके शिकार होते ही हैं। संभव है इस तरह की लड़ाई में कुछ निर्दोष लोग भी इसका शिकार हो रहे हों। लेकिन जब चुनाव अपने पुलिस तंत्र और नक्सल के तंत्र में करना हो, तो आपको पुलिस तंत्र को ही चुनना होगा। क्योंकि यही चुनाव विधि सम्मत है और लोकहित में भी। पुलिस के काम करने के अपने तरीके हैं और एक लोकतंत्र में होने के नाते उसके गलत कामों की आलोचना तथा उसके खिलाफ कार्रवाई करने के भी हजार हथियार भी हैं। क्योंकि पुलिस तंत्र अपनी तमाम लापरवाहियों के बावजूद एक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, जिस पर समाज, सरकार और अदालतों की नजर होती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि पहली बार उन्होंने इस 'छद्म जनवादी युध्द को राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दी। वे देश के पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने इस समस्या को उसके राष्ट्रीय संदर्भ में पहचाना है।

आज भले ही केंद्रीय गृह राज्यमंत्री राज्य शासन को कटघरे में खड़ा कर रहे हों, लेकिन उन्हें यह तो मानना ही होगा कि नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़ सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इसका कारण यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी जिस 'विचार परिवार से जुड़ी है वह चाहकर भी माओवादी अतिवादियों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकती। एक वैचारिक गहरे अंर्तविरोध के नाते भारतीय जनता पार्टी की सरकार राजनैतिक हानि सहते हुए भी माओवाद के खिलाफ ही रहेगी। यह उसकी वैचारिक और राजनैतिक दोनों तरह की मजबूरी और मजबूती दोनों है।

नक्सलवाद के खिलाफ आगे आए आदिवासी समुदाय के सलवा-जुड़ूम आंदोलन को कितना भी लांछित किया जाए, वह किसी भी कथित जनक्रांति से महान आंदोलन है। महानगरों में रहने वाले, वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं, लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की यातना और पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते। इस तरह का ढोंग रचकर वैचारिकता का स्वांग रचने वाले लोग यहां के दर्द को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे पीड़ा और दर्द के ही व्यापारी हैं। उन्हें बदहाल, बदहवास हिंदुस्तान ही रास आता है। हिंदुस्तान के विकृत चेहरे को दिखाकर उसकी मार्केटिंग उन्हें दुनिया के बाज़ार में करनी है, डालर के बल पर देश तोड़क अभियानों को मदद देनी है। उन्हें वैचारिक आधार देना है, क्योंकि उनकी मुक्ति इसी में है। दुनिया में आज तक कायम हुई सभी व्यवस्थाओं में लोकतंत्र को सर्वश्रोष्ठ व्यवस्था माना गया है। जिनकी इस लोकतंत्र में भी सांसें घुट रही हैं, उन्हें आखिर कौन सी व्यवस्था न्याय दिला सकती है। वे कौन सा राज लाना चाहते हैं, इसके उत्तर उन्हें भी नहीं मालूम हैं। निरीह लोगों के खिलाफ वे एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका अंत नजर नहीं आता। अब जबकि सरकारों को चाहे वे केंद्र की हों या राज्य की कम से कम नक्सलवाद के मुद्दे पर हानि-लाभ से परे उठकर कुछ कड़े फैसले लेने ही होंगे। नक्सल प्रभावित सभी राज्यों और केंद्र सरकार के समन्वित प्रयासों से ही यह समस्या समूल नष्ट हो सकती है। यह बात अनेक स्तरों पर छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से कही जा चुकी है। समाधान का रास्ता भी यही है। सही संकल्प के साथ, न्यूनतम राजनीति करते हुए ही इस समस्या का निदान ढूंढा जा सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य में चल रही यह जंग छत्तीसगढ़ की अकेली समस्या नहीं है। देश के अनेक राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं और दिन-प्रतिदिन नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करते जा रहे हैं।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भले ही यह कहें कि राज्य सरकार में नक्सलवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं है, किंतु सच्चाई यह है कि पहली बार छत्तीसगढ़ सरकार ने ही यह इच्छाशक्ति दिखाई है। इसे हौसला, हिम्मत और साधन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है वरना आरोपों-प्रत्यारोपों के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।

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